नज़रिया
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नज़रिया
Image by A_Werdan from Pixabay
एक गांव में कुछ मजदूर पत्थर के खंभे बना रहे थे। उधर से एक साधु गुजरे। उन्होंने एक मज़दूर से पूछा - तुम क्या बना रहे हो?
उसने कहा - देखते नहीं, पत्थर काट रहा हूँ?
साधु ने कहा - हाँ! देख तो रहा हूँ। लेकिन यहां बनेगा क्या?
मजदूर झुंझला कर बोला - मालूम नहीं। यहां पत्थर तोड़ते-तोड़ते जान निकल रही है और इनको यह चिंता है कि यहां क्या बनेगा।
साधु आगे बढ़े।
एक दूसरा मज़दूर मिला। साधु ने पूछा - यहां क्या बनेगा?
मज़दूर बोला - देखिए साधु बाबा। यहाँ कुछ भी बने। चाहे मंदिर बने या जेल। मुझे क्या? मुझे तो दिन भर की मज़दूरी के रूप में 100 रुपए मिलते हैं। बस शाम को रुपए मिलें और मेरा काम बने। मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि यहां क्या बन रहा है। मुझे तो अपने परिवार का पेट पालना है, बस!
साधु आगे बढ़े तो तीसरा मज़दूर मिला जो गुनगुनाते हुए अपना काम कर रहा था। साधु ने उससे पूछा - यहां क्या बनेगा?
मज़दूर ने कहा - मंदिर। इस गांव में कोई बड़ा मंदिर नहीं था न!
इस गांव के लोगों को दूसरे गांव में उत्सव मनाने जाना पड़ता था। मैं भी इसी गांव का हूँ। ये सारे मज़दूर इसी गांव के हैं। मैं एक-एक छेनी चला कर जब पत्थरों को गढ़ता हूँ तो छेनी की आवाज़ में मुझे मधुर संगीत सुनाई पड़ता है। मैं आनंद में हूँ। कुछ दिनों बाद यह मंदिर बन कर तैयार हो जाएगा और यहां धूमधाम से पूजा होगी। मेला लगेगा। कीर्तन होगा। मैं यही सोच कर मस्त रहता हूँ। मेरे लिए यह काम केवल काम नहीं है। मैं हमेशा भगवान के दर्शन की मस्ती में रहता हूँ। उनके लिए मंदिर बनाने की मस्ती में। मैं रात को सोता हूँ तो मंदिर की कल्पना के साथ और सुबह जागता हूँ तो मंदिर के खंभों को तराशने के लिए चल पड़ता हूँ। बीच-बीच में जब ज्यादा मस्ती आती है तो भजन गाने लगता हूँ। जीवन में इससे ज्यादा काम करने का आनंद कभी नहीं आया।
साधु ने कहा - यही तो जीवन के आनन्द का रहस्य है, मेरे भाई! बस नज़रिए का फर्क है। कोई काम को बोझ समझ रहा है और पूरा जीवन झुंझलाते और हाय-हाय करते बीत जाता है। लेकिन कोई काम को आनंद समझ कर जीवन का लुत्फ ले रहा है।
बस नज़रिए का फ़र्क है! आइए! हम भी अपने काम करने के नज़रिए को बदलें और उसे भगवान की पूजा मानकर करें, तो हमारे काम का बोझ भी हल्का लगने लगेगा और जीवन की यात्रा आनन्द से व्यतीत हो जाएगी।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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Work is God.
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