ख़ुशबू ऐसे फैली
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ख़ुशबू ऐसे फैली
Image by Anja-#pray for ukraine# #helping hands# stop the war from Pixabay
मैं चेन्नई में कार्यरत था और मेरा पैतृक घर भोपाल में था। अचानक घर से पिताजी का फ़ोन आया कि तुरन्त घर चले आओ। कोई अत्यंत आवश्यक कार्य है। मैं आनन फानन में रेलवे स्टेशन पहुंचा और तत्काल रिजर्वेशन की कोशिश की परन्तु गर्मी की छुट्टियाँ होने के कारण एक भी सीट उपलब्ध नहीं थी।
सामने प्लेटफार्म पर ग्रैंड ट्रंक एक्सप्रेस खड़ी थी और उसमें भी बैठने की जगह नहीं थी। परन्तु मरता क्या नहीं करता। घर तो कैसे भी जाना था। बिना कुछ सोचे-समझे सामने खड़े स्लीपर क्लास के डिब्बे में घुस गया। मैंने सोचा कि इतनी भीड़ में रेलवे टी.टी. कुछ नहीं कहेगा। डिब्बे के अन्दर भी बुरा हाल था। जैसे-तैसे जगह बनाने हेतु एक बर्थ पर एक सज्जन को लेटे देखा तो उनसे याचना करते हुए बैठने के लिए जगह मांग ली। सज्जन मुस्कुराये और उठकर बैठ गए और बोले - “कोई बात नहीं। आप यहाँ बैठ सकते हैं।”
मैं उन्हें धन्यवाद देकर वहीं कोने में बैठ गया। थोड़ी देर बाद ट्रेन ने स्टेशन छोड़ दिया और रफ़्तार पकड़ ली। कुछ मिनटों में जैसे सभी लोग व्यवस्थित हो गए। सभी को बैठने का स्थान मिल गया और लोग अपने साथ लाया हुआ खाना खोल कर खाने लगे। पूरे डिब्बे में भोजन की महक भर गयी। मैंने अपने सहयात्री को देखा और सोचा कि बातचीत का सिलसिला शुरू किया जाये। मैंने कहा - “मेरा नाम आलोक है और मैं इसरो में वैज्ञानिक हूँ। आज़ ज़रूरी काम से अचानक मुझे घर जाना था इसलिए स्लीपर क्लास में चढ़ गया। वरना मैं ए.सी. से कम में यात्रा नहीं करता।”
वह मुस्कुराये और बोले - “वाह! तो मेरे साथ एक वैज्ञानिक यात्रा कर रहे हैं। मेरा नाम जगमोहन राव है। मैं वारंगल जा रहा हूँ। उसी के पास एक गाँव में मेरा घर है। मैं अक्सर शनिवार को घर जाता हूँ।”
इतना कहकर उन्होंने अपना बैग खोला और उसमें से एक डिब्बा निकाला। वह बोले - “ये मेरे घर का खाना है। आप लेना पसंद करेंगे?”
मैंने संकोचवश मना कर दिया और अपने बैग से सैंडविच निकाल कर खाने लगा। जगमोहन राव! ये नाम कुछ सुना-सुना और जाना-पहचाना सा लग रहा था। परन्तु इस समय याद नहीं आ रहा था।
कुछ देर बाद सभी लोगों ने खाना खा लिया और जैसे-तैसे सोने की कोशिश करने लगे। हमारी बर्थ के सामने एक परिवार बैठा था, जिसमें एक पिता, माता और दो बड़े बच्चे थे। उन लोगों ने भी खाना खा कर बिस्तर लगा लिए और सोने लगे। मैं बर्थ के पैताने में उकडू बैठ कर अपने मोबाइल में गेम खेलने लगा।
रेलगाड़ी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी। अचानक मैंने देखा कि सामने वाली बर्थ पर 55-57 साल के जो सज्जन लेटे थे, वह अपनी बर्थ पर तड़पने लगे और उनके मुंह से झाग निकलने लगा। उनका परिवार भी घबरा कर उठ गया और उन्हें पानी पिलाने लगा। परन्तु वह कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थे। मैंने चिल्ला कर पूछा - अरे! कोई डॉक्टर को बुलाओ। इमरजेंसी है।”
रात में स्लीपर क्लास के डिब्बे में डॉक्टर कहाँ से मिलता? उनके परिवार के लोग उन्हें असहाय अवस्था में देख कर रोने लगे। तभी मेरे साथ वाले जगमोहन राव नींद से जाग गए। उन्होंने मुझसे पूछा - “क्या हुआ?”
मैंने उन्हें सब बताया। मेरी बात सुनते ही वह लपक के अपने बर्थ के नीचे से अपना सूटकेस निकाल कर खोलने लगे। सूटकेस खुलते ही मैंने देखा कि उन्होंने स्टेथेस्कोप निकाला और सामने वाले सज्जन के सीने पर रख कर धड़कने सुनने लगे। एक मिनट बाद उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखने लगी। उन्होंने कुछ नहीं कहा और सूटकेस में से एक इंजेक्शन निकाला और सज्जन के सीने में लगा दिया और उनका सीना दबा-दबा कर, मुंह पर अपना रूमाल लगा कर अपने मुंह से सांस देने लगे। कुछ मिनट तक सी.पी.आर. देने के बाद मैंने देखा कि रोगी सहयात्री का तड़फना कम हो गया।
जगमोहन राव जी ने अपने सूटकेस में से कुछ और गोलियां निकाली और परिवार के बेटे से बोले - “बेटा! ये बात सुनकर घबराना नहीं। आपके पापा को मेसिव हृदयाघात आया था। पहले उनकी जान को ख़तरा था परन्तु मैंने इंजेक्शन दे दिया है और ये दवाइयां उन्हें दे देना।”
उनका बेटा आश्चर्य से बोला - “पर आप कौन हो?”
वह बोले - “मैं एक डॉक्टर हूँ। मैं इनकी केस हिस्ट्री और दवाइयां लिख देता हूँ। अगले स्टेशन पर उतर कर आप लोग इन्हें अच्छे अस्पताल ले जाइएगा।”
उन्होंने अपने बैग से एक लेटरपेड निकाला और जैसे ही मैंने उस लेटरपेड का हैडिंग पढ़ा, मेरी याददाश्त वापस आ गयी।
उस पर छपा था - डॉक्टर जगमोहन राव हृदय रोग विशेषज्ञ, अपोलो अस्पताल, चेन्नई।
अब तक मुझे भी याद आ गया कि कुछ दिन पूर्व मैं जब अपने पिता को चेकअप के लिए अपोलो हस्पताल ले गया था, वहाँ मैंने डॉक्टर जगमोहन राव के बारे में सुना था। वह अस्पताल के सबसे वरिष्ठ, विशेष प्रतिभाशाली हृदय रोग विशेषज्ञ थे। उनका अपाइन्टमेण्ट लेने के लिए महीनों का समय लगता था। मैं आश्चर्य से उन्हें देख रहा था। एक इतना बड़ा डॉक्टर स्लीपर क्लास में यात्रा कर रहा था। मैं एक छोटा सा तृतीय श्रेणी वैज्ञानिक घमंड से ए.सी. में चलने की बात कर रहा था और ये इतने बड़े आदमी इतने सामान्य ढंग से पेश आ रहे थे। इतने में अगला स्टेशन आ गया और वह हृदयाघात से पीडित बुजुर्ग एवं उनका परिवार टी.टी. एवं स्टेशन पर बुलवाई गई मेडिकल मदद से उतर गया।
रेल फिर से चलने लगी। मैंने उत्सुकतावश उनसे पूछा - “डॉक्टर साहब! आप तो आराम से ए.सी. में यात्रा कर सकते थे, फिर स्लीपर में क्यूँ?”
वह मुस्कुराये और बोले - “मैं जब छोटा था और गाँव में रहता था, तब मैंने देखा था कि रेल में कोई डॉक्टर उपलब्ध नहीं होता। खासकर दूसरे दर्जे में। इसलिए मैं जब भी घर या कहीं जाता हूँ तो स्लीपर क्लास में ही सफ़र करता हूँ। न जाने कब किसे मेरी ज़रूरत पड़ जाए। मैंने डॉक्टरी मेरे जैसे लोगों की सेवा के लिए ही की थी। हमारी पढ़ाई का क्या फ़ायदा यदि हम किसी के काम न आ पाएँ?”
इसके बाद सफ़र उनसे यूं ही बात करते बीतने लगा। सुबह के चार बज गए थे। वारंगल आने वाला था। वह यूं ही मुस्कुरा कर लोगों का दर्द बाँट कर, गुमनाम तरीके से मानव सेवा कर, अपने गाँव की ओर निकल लिए और मैं उनके बैठे हुए स्थान से आती हुई परोपकार की ख़ुशबू का आनंद लेते हुए अपनी बाकी यात्रा पूरी करने लगा।
अब मेरी समझ में आया था कि इतनी भीड़ के बावजूद डिब्बे में ख़ुशबू कैसे फैली। ये ख़ुशबू उन महान व्यक्तित्व और पुण्य आत्मा की ख़ुशबू थी जिसने मेरा जीवन और मेरी सोच दोनों को महका दिया।
हम बदलेंगे तो युग बदलेगा।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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आप का प्रयास अभिनन्दनीय है आप धन्यवाद और साधुवाद की पात्र हैं
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