दुर्वचनों की अपेक्षा मौन अच्छा

👼👼👼👼👼👼👼👼👼👼

वाणी बने वीणा (7)

दुर्वचनों की अपेक्षा मौन अच्छा

एक बार बोले गए दुर्वचन हमारे द्वारा जीवन भर किए गए सभी उपकारों पर पानी फेर देते हैं।

एक व्यक्ति ने दिल्ली जाने से पहले अपने मित्र को सूचित किया कि मैं दिल्ली आ रहा हूँ। मित्र ने बहुत आत्मीयता से उसे अपने घर खाने पर आमंत्रित किया। बाहें फैला कर उसका स्वागत किया और स्वादिष्ट भोजन खिलाया। उस व्यक्ति ने भी जी भर कर मित्र के द्वारा किए गए स्वागत और खिलाए गए भोजन की प्रशंसा की कि ऐसा स्वादिष्ट भोजन तो मैंने पहले कभी नहीं खाया। मित्र ज़रा मुंहफट था। बोला कि तूने तो क्या, तेरे बाप ने भी कभी ऐसा स्वादिष्ट भोजन नहीं खाया होगा। यह सुन कर उसके मुँह में मिठास के स्थान पर कड़वाहट घुल गई।

कहा भी है -

शब्द संभारे बोलिए, शब्द के हाथ न पांव,

एक शब्द औषध करै, एक शब्द करै घाव।

हमारे शब्द किसी दुःखी के दुःख को समाप्त करने में औषधि का काम करें, तभी उनकी सार्थकता है। ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना, जो सुखी व्यक्ति के सुख को भी मर्मभेदी घावों से छलनी-छलनी कर दे। यह हमारे पतन की पराकाष्ठा है।

इसलिए हमें मर्मघाती शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए। कोई व्यक्तिगत आक्षेप तो फिर भी सहन कर सकता है पर अपने धर्म और परिवार पर किए गए आक्षेप सहन करना बहुत कठिन है। ऐसी कटुक्तियों से उसके मन पर अंदर तक चोट पहुँचती है और रिश्तों के तार टूटने लगते हैं। आप को एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि टूटे रिश्ते और टूटे धागे को जोड़ने के लिए जब-जब गाँठ लगाई जाती है, वह छोटा होता जाता है। वह भद्दा और बदसूरत दिखाई देने लगता है। उसे अनुपयोगी समझ कर Dustbin में फेंक दिया जाता है।

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय,

जोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाए।

दुर्वचन बोलने से तो अच्छा है - मौन।

परमात्मा ने हर इंसान को दो आँख, दो कान, दो नासिका अर्थात् हर इन्द्रिय दो-दो प्रदान की हैं, पर जिह्वा एक ही दी है। इसका क्या कारण रहा होगा?

वास्तव में मौन का जीवन में बहुत महत्त्व है। यह दुर्वचनों को मुख से बाहर नहीं निकलने देता क्योंकि दुर्वचन अकेला ही अनेक भयंकर परिस्थितियाँ पैदा करने के लिये पर्याप्त है।

एक मछलीमार कांटा डाले तालाब के किनारे बैठा था। काफी समय बाद भी कोई मछली कांटे में नहीं फँसी, न ही पानी में कोई हलचल हुई तो वह सोचने लगा - ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मैने कांटा गलत जगह डाला है, क्या मालूम यहाँ कोई मछली ही न हो!’

उसने तालाब में झाँका तो देखा कि उसके कांटे के आसपास तो बहुत-सी मछलियाँ थीं। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी मछलियाँ होने के बाद भी कोई मछली फँसी क्यों नहीं !

एक राहगीर ने जब यह नजारा देखा तो उससे कहा - “लगता है भैया, यहाँ पर मछली मारने बहुत दिनों बाद आए हो! अब इस तालाब की मछलियाँ कांटे में नहीं फँसती।“

मछलीमार ने हैरत से पूछा - “क्यों, ऐसा क्या है यहाँ ?

राहगीर बोला - “पिछले दिनों तालाब के किनारे एक बहुत बड़े संत ठहरे थे। उन्होने यहाँ मौन की महत्ता पर प्रवचन दिया था। उनकी वाणी में इतना तेज था कि जब वे प्रवचन देते तो सारी मछलियाँ किनारे पर एकत्रित हो जातीं और उनका प्रवचन बहुत ध्यान से सुनतीं। यह उनके प्रवचनों का ही असर है कि उसके बाद जब भी कोई इन्हें फँसाने के लिए कांटा डालकर बैठता है तो ये मौन धारण कर लेती हैं। जब मछली मुँह खोलेगी ही नहीं तो कांटे में फँसेगी कैसे? इसलिए बेहतर यही होगा कि आप कहीं और जाकर कांटा डालो।“

संत ने कितनी सही बात कही कि विपत्ति के समय जब मुँह खोलोगे ही नहीं, तो फँसोगे कैसे?

यदि स्वयं पर संयम करना चाहते हैं तो केवल इस जिह्वा पर नियंत्रण कर लें बाकी सब इन्द्रियां स्वयं नियंत्रित रहेंगी। यह बात हमें भी अपने जीवन में उतार लेनी चाहिए।

एक चुप सौ सुख।

--

सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

🙏🙏🙏


विनम्र निवेदन

यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें।

धन्यवाद।

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

अगली यात्रा - प्रेरक प्रसंग

Y for Yourself

आज की मंथरा

आज का जीवन -मंत्र

बुजुर्गों की सेवा की जीते जी

स्त्री के अपमान का दंड

आपस की फूट, जगत की लूट

सुदामा को ग़रीबी क्यों मिली...?

कठिनाईयां