आज की मंथरा
आज की मंथरा
“यहाँ मंथरा को जगह नहीं है।”
उस दिन सुबह-सुबह बहू ने कहा - “माँजी, ऑफिस का इमरजेंसी प्लान है, मुझे तुरंत पुणे से इंदौर जाना होगा।”
मैं चौंकी तो ज़रूर, लेकिन उसकी व्यस्तता को देखते हुए कुछ कहा नहीं।
वह जल्दी-जल्दी पैकिंग कर रही थी। कपड़े, कॉस्मेटिक्स, फाइलें, जूते - सब बैग में ठूँस रही थी।
कमरे का हाल देखकर लग रहा था, मानो कोई तूफ़ान गुज़र गया हो।
उसके जाते ही मैं पीछे का फैलारा समेटने में जुट गई।
मेरा मन लगातार बुदबुदा रहा था- “आजकल की लड़कियाँ भी न! सामान इस्तेमाल करती हैं और वापस अपनी जगह नहीं रखतीं। ज़रा-सा व्यवस्थित होना भी सीख लें, तो आधा काम कम हो जाए।”
मैं कमरे को ठीक कर ही रही थी कि पीछे से आवाज़ आई - “बया! बया! बया! कितना ह्यो फैलारा! कुछ नहीं तो आपकी उम्र का तो बहूबाई ख्याल रखती!”
यह घर की नौकरानी थी। उसका लहज़ा मेरे कानों में खटक गया।
फिर उसने ताना मारते हुए कहा- “कुछ भी कहो, माँजी! आप नहीं होतीं तो इस घर का क्या हाल होता? बहूबाई नौकरी करती हैं, तो क्या इसका मतलब है कि घर का सारा काम आप ही करेंगी?”
मैंने उसे तीखी नज़र से देखा और ठंडी आवाज़ में पूछा- “तुम्हें यहाँ किसलिए रखा है?”
वह सहम गई, बोली- “जी...... झाड़ू-पोछा लगाने के लिए।”
“तो फिर उतना करो और चलती बनो!” मैंने सख्ती से जवाब दिया।
वह चुपचाप खिसक गई, लेकिन उसके शब्द मेरे दिल में एक चुभन छोड़ गए।
मन ही मन सोचा- “ये है वही प्रवृत्ति..... दूसरों के रिश्तों में आग लगाने वाली प्रवृत्ति। जिसे हम ‘विघ्नसंतोषी’ कहते हैं।”
रामायण का दृश्य आँखों के सामने तैर गया। कैसे मंथरा ने कैकई के मन में ज़हर घोला था। परिणाम? एक हँसता-खेलता परिवार बिखर गया।
एक पुत्र का वनवास, एक पिता की पुत्रशोक में मृत्यु।
मंथरा को क्या मिला? सिर्फ आसुरी आनंद।
असल में मंथरा कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि एक मानसिकता है। आज भी ऐसे कितने लोग हमारे आस-पास घूमते रहते हैं। जहाँ भाई-भाई का प्यार दिखा, वहाँ फूट डाल दी। सास-बहू या ननद-भाभी में स्नेह देखा, तो उसमें आग लगा दी। दो अच्छे मित्र देखे, तो ईर्ष्या में उनकी दोस्ती तोड़ दी।
मैं सोचती रही- “कभी भी किसी के लिए मन में क्षोभ उठे और उसी समय कोई तीसरा व्यक्ति आकर उस क्षोभ पर घी डाले, तो हमें तुरंत सावधान हो जाना चाहिए। ऐसे विघ्नसंतोषी लोगों को समाधान देने से कहीं बेहतर है कि हम दूसरे पक्ष को "बेनिफिट ऑफ डाउट" न दें। हो सकता है सामने वाला सचमुच हमारी परवाह करता हो, और यह तीसरा सिर्फ फूट डालने आया हो।”
मैंने ठान लिया कि नौकरानी जैसी ‘मंथरा’ प्रवृत्तियों को अपने रिश्तों के बीच घुसने नहीं दूँगी।
आठ दिन बीत गए।
बहू इंदौर से लौटी तो उसके हाथ सामान से भरे थे।
घर को चमकता-दमकता देखकर उसकी आँखें भर आईं।
“माँजी, सच कहती हूँ....। मुझे अफसोस है। मैं अचानक चली गई और सारा बोझ आप पर छोड़ दिया। काम तो बहुत था, लेकिन आपने अकेले सब संभाल लिया। आप भी न, इतनी मेहनत करने की क्या ज़रूरत थी? मैं आने ही वाली थी।”
उसकी बातें सुनकर मेरे होंठों पर मुस्कान आ गई।
मैंने सोचा - “देखा, यही है असली रिश्ता। बिना कहे भी वह मेरी चिंता कर रही है।”
वह बोली - “अब से सारा खाना मैं बनाऊँगी। मैंने एक दिन की छुट्टी और बढ़ा ली है ऑफिस से।”
“क्यों भला?” मैंने पूछा।
वह शरारत से मुस्कुराई - “इतना सारा सामान जो लाई हूँ.....। कम से कम अब फैलारा मुझे ही निपटाने दीजिए।”
मैं ठठाकर हँस पड़ी।
उसकी खिलखिलाहट में मेरी हँसी घुल गई।
दोनों की हँसी मिलकर मानो कह रही थी - “यहाँ मंथरा को जगह नहीं है।”
उस दिन के बाद से हमारे बीच एक नई नज़दीकी आ गई। मुझे अहसास हुआ कि आज की बहुएँ भले ही नौकरी करती हों, लेकिन उनके दिल में घर और परिवार के लिए जगह कम नहीं होती।
कभी-कभी उनका अंदाज़ अलग होता है, लेकिन उनका प्रेम उतना ही गहरा। और यह भी सीखा कि रिश्तों को बिगाड़ने वाले लोग हर घर में मिलेंगे।
मंथरा जैसी प्रवृत्ति हमें बहकाने की कोशिश करेगी। लेकिन अगर हम सतर्क रहें, तो न केवल अपने रिश्ते बचा सकते हैं, बल्कि उन्हें और मज़बूत भी बना सकते हैं।
आज जब भी मैं रामायण पढ़ती हूँ और मंथरा का प्रसंग आता है, तो मुझे वही दिन याद आता है। अगर मैं नौकरानी की बातों में आ जाती, तो शायद मेरे मन में भी बहू के प्रति शिकायतें जमने लगतीं। लेकिन मैंने उसे रोक दिया और रिश्ते को "बेनिफिट ऑफ डाउट" नहीं दिया।
परिणाम?
मेरे और बहू के बीच विश्वास और भी गहरा हो गया।
सच यही है - रिश्तों में मंथरा को जगह न दो।
जहाँ विश्वास है, वहाँ किसी तीसरे को दरार डालने मत दो। क्योंकि स्नेह और विश्वास ही हर घर को स्वर्ग बना सकता है।
मूल लेखिका : शशि डांगे
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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