मीठी वाणी - सुखी जीवन का आधार

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वाणी बने वीणा (3)
मीठी वाणी - सुखी जीवन का आधार

वाणी मानव की असाधारण उपलब्धि है। एकेन्द्रिय जीव तो वाक्-शक्ति से शून्य होते ही हैं पर दो इन्द्रिय से लेकर कुछ पंचेन्द्रिय जीवों के पास वाक्-शक्ति होते हुए भी वे स्पष्ट रूप से समझ में आने वाली भाषा से रहित होते हैं। केवल मनुष्य को ही वाक्-शक्ति के साथ-साथ भाषा का वरदान भी प्राप्त हैं। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसे वरदान बनाते हैं या अभिशाप।

वाणी विचारों के सम्प्रेषण का उपयुक्त माध्यम है। जो बोलने में असमर्थ है, ऐसे व्यक्ति से पूछो तो पता चलेगा कि यह क्षमता कितनी मूल्यवान है। इसलिए हमें इस के मूल्य को आँकते हुए इसका सदुपयोग करना चाहिए।

यह संसार एक कटु वृक्ष के समान है जिसमें हर स्थान पर कटुता ही दिखाई देती है पर इसमें दो अमृत तुल्य फल भी मिलते हैं - सुभाषण और सत्संगति। अच्छे लोगों का साथ हो, वाणी में मधुरता हो, व्यवहार में विनम्रता हो और चरित्र में शालीनता हो तो ऐसा व्यवहार वशीकरण मंत्र के समान कार्य करता है।

हमारी वाणी की गुणवत्ता पर सबसे अधिक प्रभाव संगति का पड़ता है कि हम जिन लोगों के साथ उठते बैठते हैं, उनके साथ हमारा व्यवहार कैसा है? हम उनके अनुसार ढल जाते हैं या अपने गुणों से उनको प्रभावित कर के उन्हें भी अपने जैसा बना लेते हैं।

यह हमारे जीवन की प्राथमिकता होनी चाहिए कि हम अपनी वाणी को फूल के समान कोमल बनाएं, शूल के समान कठोर नहीं।

एक ओर जहाँ मधुर वाणी सब के मन को अपने वश में कर सकती है, वहीं दूसरी ओर कटु वाणी विस्फोटक बम का काम भी कर सकती है, जिससे पलों में ही सब कुछ विनष्ट हो सकता है। हमारी वाणी दूसरे के मन को छूने वाली होनी चाहिए न कि छीलने वाली।

मधुर वाणी से मन खिलता है तो कठोर वाणी से मन खौल जाता है। मधुर वाणी से हम बोलने वाले के कायल हो जाते हैं तो उसके कड़वे बोल मन को घायल कर देते हैं। वाणी से हम आह्लाद का अनुभव भी कर सकते हैं और अवसाद का भी।

हमारी वाणी मन में बाग लगाने का काम करे आग लगाने का नहीं।

त्रेता युग में तो मंथरा ने आग लगाई थी पर आज भी आग लगाने वालों की कमी नहीं है। हम जो भी बोलें, विवेक से बोलें। कम से कम बोलने से पहले उसके परिणाम के बारे में अवश्य सोच लेना चाहिए।

जब हमारी दुकान में ग्राहक आता है तो हम उस पर मीठे वचनों की बरसात कर देते हैं। मान लो एक महिला साढ़ी खरीदने के लिए हमारी दुकान पर आती है तो हम उसे न जाने कितनी साढ़ियाँ खोल-खोल कर दिखाते हैं। पर उसे एक भी साढ़ी पसंद नहीं आती। जाते-जाते यह और कह जाती है कि तुम्हारी दुकान में तो कुछ है ही नहीं। तो क्या हम उससे झगड़ा करते हैं या यह कहते हैं कि बहन जी, अगले हफ्ते नया माल आने वाला है, उसमें से आपको कोई-न-कोई साढ़ी अवश्य पसंद आ जाएगी। आप अगले हफ्ते आओगे तो मनपसंद साढ़ियाँ दिखाएंगे।

हाँ, यही कहते हैं। हमने अपना धंधा चौपट थोड़े ही करना है।

क्या हम अपनी पत्नी या घरवालों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं? क्या उनकी कड़वी बातें भी हमारे गले से नीचे पानी की तरह उतर जाती हैं। नहीं न! क्यों? क्या कटु वचन बोलने से घर में हमारा जीवन चौपट नहीं हो जाता? क्या घर की शांति भंग नहीं होती? जीवन भी एक व्यापार की तरह ही है। घर-परिवार की शांति भंग करके हमें कोई मुनाफा होने वाला नहीं है। समय निकाल कर इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयत्न करना। आपको स्वयं ही इनके जवाब मिल जाएंगे।

यदि हम व्यापार में वाणी को नियंत्रण में रख सकते हैं तो हमें व्यवहार में भी वाणी का संयम रखना चाहिए। कभी बोलने के बाद सफाई पेश न करो बल्कि पहले ही सफाई से बोलो। बोल कर न सोचना पड़े इसलिए सोच कर बोलना चाहिए।

एक बार राजा ने पंडितों को दरबार में बुलाया ताकि वे राजा को यह बता सकें कि उन की कितनी आयु शेष है। एक पंडित ने कुंडली के अनुसार बताया कि हे राजन्! आपकी तीन पीढ़ियां आप के सामने मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगी। यह सुनकर राजा को बहुत क्रोध आया और उस पंडित को तुरंत हाथी के नीचे कुचल देने का आदेश दे दिया। यह देख कर बाकी पंडित तो कुछ कहने का साहस भी न कर सके। जबकि राजा की कुंडली में तो यही लिखा था।

राजा ने अन्य पंडितों को आदेश दिया कि मुझे मेरी आयु के विषय में बताया जाए। सभी मौन धारण किए हुए बैठे रहे। पर चुप रहने से तो राजा का गुस्सा और भी बढ़ जाएगा, यह सोच कर एक बुद्धिमान पंडित ने हाथ जोड़ कर कहा कि हे राजन्! आपकी कुंडली में ऐसा विलक्षण योग है कि यदि आपकी तीन पीढ़ियों की आयु भी जोड़ दी जाए तो भी आपकी आयु उससे अधिक ही होगी। वाह! क्या बढ़िया बात बताई है। राजा ने प्रसन्न होकर अपने अनुचरों को आदेश दिया कि इसे एक हाथी दक्षिणा में दे दिया जाए।

बस! यही है वाणी को वीणा बना कर बोलने का प्रभाव। बात का अर्थ तो वही था पर बताने का ढंग अलग था। एक को मिला हाथी और एक को हाथी से कुचलने का फरमान।

वाणी में सच्चाई हो, आदर का भाव हो, समझदारी हो और मधुरता हो तो वह वाणी सबको प्रभावित करती है और उन्हें अपना बना लेती है।

किसी से बात करते समय हमें इन चार बातों से बचना चाहिए। 

वे हैं - अविवेक, अतिरेक, उद्वेग और उद्रेक अर्थात् भावों का तीव्र आवेश।

वाणी को विवेक की तराज़ू पर तोल कर बोलो। 

जब हमें क्रोध आता है तो विवेक की आँखें बंद हो जाती हैं और मुंह खुल जाता है। फिर तो जो हमारे मन में आता है हम बोलते चले जाते हैं, चाहे उसका परिणाम कुछ भी हो। सही-गलत का भी भान नहीं रहता।

एक आदमी बहुत गुस्से में था और अपने नौकर को डांट रहा था। तभी उन के घर की कॉल बैल बजी। 

उसने अपने नौकर को कहा - ‘जा बे देख, कौन गधा आया है?’ 

नौकर भाग कर गया और वापिस आ कर बोला - ‘जी, आप के पिताजी आए हैं।’ ‘अच्छा, जाकर पूछ कि किस गधे से मिलने आए हैं?’

‘जी, आपसे।’

तो देखा आपने! क्रोध के आवेश में हम स्वयं को ही गधा बना लेते हैं। भाषा का संयम रहता नहीं, बाद में पछताना पड़ता है। अतः सदा विवेक से बोलो और अतिरेक से बचो। अपने भावों पर नियंत्रण अति आवश्यक है।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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