आत्म-निर्भर
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हाँ!
क्या आप अपने बच्चों को मज़बूत बनाना चाहते हैं?
हाँ, भई हाँ!!
बिल्कुल ठीक।
हर माता-पिता की यही इच्छा होती है कि उनके बच्चों में स्वयं अपने निर्णय लेने की क्षमता विकसित हो पर इसके लिए हमें उनकी जड़ों को मज़बूत बनाना होगा।
एक युवक आस्ट्रेलिया से उच्च शिक्षा प्राप्त करके आया।
वह बहुत होनहार व हर काम में निपुण था।
एक दिन वह अपने घर के बगीचे में खड़ा होकर माली को काम करते हुए देख रहा था।
उसने देखा कि वहाँ कुछ अनार के वृक्ष थे।
एक वृक्ष पर कुछ अनार भी लगे हुए हैं और कुछ अभी पकने की तैयारी में हैं।
फलों के बोझ से उन का झुकाव एक तरफ हो रहा था।
युवक ने माली को हिदायत देते हुए कहा कि इन झुके हुए वृक्षों को support की आवश्यकता है।
ये इतना बोझ सहन नहीं कर पा रहे हैं।
माली पहले तो हंसा और फिर बोला कि ठीक है! जैसा आप कहेंगे, वैसा ही मैं कर दूँगा।
युवक ने पूछा कि तुम हंसे क्यों?
"नहीं, कुछ नहीं।"
"कुछ तो है। मुझे बताओ।"
माली ने कहा कि मैं इन्हें support तो दे दूंगा पर बिना सहारे के तो एक-आध वृक्ष ही आगे नहीं बढ़ पाएगा, लेकिन सहारा देने से तो कोई भी नहीं बढ़ेगा।
‘अरे! ऐसा क्यों?’
‘साहब! ऐसा इसलिए कि बिना संघर्ष के इनकी जड़ें मज़बूत नहीं बन पाएंगी और ये अपने सहारे खड़े नहीं हो सकेंगे। जब तक ये कष्टों को सहन करना नहीं सीखेंगे, तब तक जड़ों में ज़मीन को पकड़ने की ताकत नहीं आएगी और ये कुछ ही दिनों में ज़मीन पर धराशायी हो जाएंगे।’
जीवन की वास्तविकता भी यही है।
धराशायी वे ही होते हैं जो हवा में ज़्यादा उड़ते हैं और जिनकी जड़ें अपने माता-पिता, परिवार व समाज से जुड़ी हुई नहीं होती। वे जीवन की वास्तविकता को नहीं पहचानते।
इसी क्रम में एक करोड़पति व्यक्ति से मुलाकात हुई।
वह अपने लड़के को पैदल ले जाकर स्कूल भेजने के लिए स्कूल-बस के स्टाॅप तक छोड़ने जा रहा था। उससे पूछा कि तुम्हारे घर में तो दो-दो ए.सी. गाड़ियाँ खड़ी हैं। तुम इतनी गर्मी में बच्चे को पैदल ले कर जा रहे हो।
‘हाँ! मैं इसे अभी से सुविधाभोगी बना सकता हूँ, पर मैं नहीं चाहता कि इसे बड़े होने के बाद किसी प्रकार के कष्टों का अहसास भी न हो। मेरे पिता के पास सुख-सुविधा के साधन नहीं थे इसलिए आज मैं हर कष्ट को सहन करने की क्षमता रखता हूँ और हर हाल में सुखी रह सकता हूँ। कल मेरे पास धन-संपत्ति का अभाव हो गया तो यह स्वयं को संभाल नहीं पाएगा और टूट जाएगा। मैं इसकी जड़ें मज़बूत करना चाहता हूँ। मैं इसे टूटने नहीं दे सकता।’
इसी सन्दर्भ में एक घटना याद आती है।
एक बच्चे ने देखा कि चिड़िया का अंडा ज़ोर-ज़ोर से हिल रहा था। उसने पास जाकर देखा तो उसमें से चिड़िया का बच्चा अंडे को फोड़ कर बाहर आने की चेष्टा कर रहा था।
बहुत देर हो गई।
बच्चे से उस चिड़िया के बच्चे का कष्ट देखा नहीं गया। वह अंडे के पास गया और उसे फोड़ दिया ताकि वह बिना किसी कष्ट के बाहर आ सके।
चिड़िया का बच्चा बाहर तो आ गया पर तब तक वह अपनी उड़ने की क्षमता खो चुका था। यदि वह संघर्ष करके बाहर आता तो बार-बार हिलाने से उसके पंखों को ताकत मिल जाती और वह स्वयं उड़ सकता था।
हमें भी चाहिए कि अपने बच्चों को अनावश्यक support दे कर उनकी क्षमता को कम न करें। उचित दिशा-निर्देश दें और उन्हें अपना निर्णय स्वयं लेने दें।
अपने दुःखों के प्रति सहनशील बनना सिखाएं तथा दूसरों के दुःखों के प्रति करुणा का भाव उत्पन्न होने के गुण का विकास करें। तभी उनके मन में प्रेम, दया, सहनशीलता व करुणा के गुण विकसित होंगे और वे जीवन के हर क्षेत्र में आत्म-निर्भर बन सकेंगे।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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