धर्म का आधार - श्रद्धा और विश्वास
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एक बार राजा ने अपने हरकारे के हाथ उसके लिए एक फरमान भेजा। जब हरकारे ने उसे राजा का फरमान दिखाया तो उसने पूछा -
‘तुम कौन हो? मैं तुम्हें नहीं जानता।’
उसने कहा - ‘मैं राजा का हरकारा हूँ।’
‘मैं कैसे मान लूँ? मैंने तुम्हें पहले तो कभी देखा ही नहीं।’
‘साहब, यह देखो! मैंने राज-दरबार की पोशाक भी पहन रखी है।’
‘चलो! मान लिया कि तुम राजा के यहाँ नौकर हो, पर इस बात का क्या प्रमाण है कि यह फरमान राजा ने ही भेजा है?’
‘जी, आप स्वयं देख लीजिए। इस फरमान पर राजा की मुद्रिका की मोहर भी लगी है।’
‘पर इस बात की क्या गारंटी है कि यह मोहर असली है या नकली? क्या मालूम तुम मुझे धोखा देने के लिए नकली मोहर लगा लाए हो?’
‘साहब, आप स्वयं चल कर राजा जी से पूछ सकते हैं।’
‘अच्छा! यह तो बताओ कि क्या तुम्हें यह फरमान स्वयं राजा जी ने दिया है?’
‘जी नहीं, मेरा केवल हरकारे का काम करना है। उन्होंने किसी कर्मचारी के हाथ भिजवाया था कि मैं इसे उस पते तक पहुँचा दूँ, जो इस पर लिखा हुआ है।’
‘भई, ऐसे तो मैं यह फरमान नहीं लूँगा।’
‘तो! मैं जाकर राजा साहब को क्या उत्तर दूँ? आप एक बार इसे खोल कर पढ़ तो लें कि इसमें क्या लिखा है?’
‘तो का जवाब यह है कि पहले मैं राजा से स्वयं मिलूँगा, उनसे पूछूँगा कि यह असली है या नहीं, तभी मैं इसे लूंगा और खोल कर पढूँगा।
‘चलो, फिर ठीक है, आप स्वयं मेरे साथ राजा के पास चलिए।’
हरकारा उस व्यक्ति के साथ राजमहल की ओर चल पड़ा।
राजमहल के मुख्य द्वार पर खड़े पहरेदार ने उन्हें वहीं रोक लिया।
‘ऐ! कहाँ जा रहे हो?’
‘भाई! हम राजा से मिलने जा रहे हैं।’
क्या तुमने राजा से मिलने का समय निश्चित किया हुआ है?
‘नहीं तो!’
‘फिर तो तुम उनसे समय लिए बिना अंदर नहीं जा सकते।’
उस शंकालु प्रवृत्ति के व्यक्ति को पहरेदारी पर खड़े आदमी पर भी शंका होने लगी कि यह वास्तव में राजमहल की पहरेदारी के लिए ही नियुक्त किया गया है या कहीं और।
उसने पूछा- ‘पहरेदार जी, क्या तुम्हें पक्का विश्वास है कि राजा इसी राजमहल में ही रहते हैं?’
‘हाँ, हाँ, बिल्कुल पक्का है।’
‘क्या तुमने कभी राजा से बात की है?’
‘नहीं, वे अंगरक्षकों की सुरक्षा में रहते हैं। हर किसी से बात नहीं करते।’
‘क्या तुमने कभी राजा को देखा भी है?’
‘हाँ, देखा तो कई बार है, अंदर बाहर आते जाते। पर बात तो वे उसी से करते हैं जिसे वे स्वयं बात करने के लिए बुलाते हैं।’
शंकालु व्यक्ति ने बहुत अनुनय-विनय की कि हमें एक बार राजा से मिलने दो पर पहरेदार तैयार नहीं हुआ, जब तक राजा ने उसे स्वयं मिलने के लिए न बुलाया हो।
आखिर उस पहरेदार ने उस व्यक्ति को बिना मिले ही लौटा दिया।
और हमारी कहानी का Climax तो अब आता है कि वह शंकालु प्रवृत्ति का व्यक्ति कभी नहीं जान पाया कि उस फरमान में उसे राजा ने मिलने के लिए ही बुलाया था, क्योंकि न तो उसने हरकारे के हाथ से वह फरमान लिया, न खोला और न ही पढ़ा। बिना पढ़े ही वह राजा के पास वापिस भेज दिया गया।
ठीक यही दशा हमारी है।
भगवान ने हमारे लिए यही फरमान भेजा है कि “मैं अपने हरकारे अर्थात् संतों के माध्यम से यह संदेशा भेज रहा हूँ। तुम इसे पढ़ कर मुझसे आकर मिलो।”
हम भगवान की और उनके फरमान की सत्यता की प्रामाणिकता की खोज में ही अपना सारा जीवन बिता देते हैं।
यदि हम एक बार भी उसे खोल कर पढ़ने का प्रयास करते तो हमें भगवान से मिलने की राह मिल जाती, फिर किसी पहरेदार की हिम्मत नहीं होती जो हमें द्वार पर रोक पाता।
अतः धर्म का आधार तर्क या शंका नहीं होता अपितु श्रद्धा और विश्वास करना होता है।
धर्म पर श्रद्धा रखो और विश्वास करो, भगवान हमें हर संकट से बचाने में समर्थ है।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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