पुण्य और पुरुषार्थ

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पुण्य और पुरुषार्थ

यदि हमें किसी काम में मनवांछित सफलता न मिले तो अपनी किस्मत को दोष न देकर अपने परिश्रम को बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। हमेशा यही सोचना चाहिए कि मेरा पुण्य तो बहुत था, पर मैंने ही ठीक ढंग से पुरुषार्थ नहीं किया होगा।

हो सकता है कि हम थोड़ी सी मेहनत और करते तो हमें उसका फल अवश्य मिल जाता।

पुरुषार्थ किए बिना पुण्य की कमी कभी मत मानना।

एक राजा था जो सुव्यवस्थित ढंग से अपने राज्य का संचालन कर रहा था। एक बार दैवीय संकट के कारण उसके राजकोष में धन की कमी हो गई। यहाँ तक कि उसमें अपने कर्मचारियों को वेतन देने की भी सामर्थ्य नहीं रही। वह चिन्तित रहने लगा।

वहाँ का नगरसेठ उसका परम मित्र था और नगरसेठ के पास पर्याप्त धन था। उसने राजा से कहा कि मित्र! तुम चिन्ता न करो। तुम्हारे कर्मचारियों को मैं वेतन दूँगा।

उसने 6 मास तक राजा की दिल खोल कर सहायता की।

राजा का पुण्य बढ़ने लगा और धीरे-धीरे राजकोष पुनः अपनी समृद्धि को प्राप्त होने लगा।

जैसे साइकिल का पहिया ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर आता रहता है, वैसे ही कालान्तर में नगरसेठ का पुण्य क्षीण होने लगा। एक समय ऐसा आया कि उसकी दशा भिखारियों जैसी हो गई।

सेठानी बहुत सहनशील व धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। सेठानी ने कई बार सेठ जी को इस समस्या से बाहर निकलने का उपाय बताया कि यहाँ का राजा तो आपका मित्र है। आप उनसे मदद क्यों नहीं माँगते? आपने भी तो उनके मुसीबत के दिनों में सहायता देकर संकट से बाहर निकाला था।

बहुत मुश्किल से सेठ राजा को अपनी स्थिति बताने को तैयार हुआ। 

राजा ने उसे देखते ही कहा कि मित्र! क्या बात है? आजकल आप मिलने भी नहीं आते। कहाँ रहते हो?

नगरसेठ ने हिचकते हुए अपनी दशा का वर्णन किया। राजा ने तुरंत अपने आदमी को बुलाया और कहा कि नगरसेठ को एक बकरी दे दो।

नगरसेठ को यह सुन कर बहुत धक्का लगा कि मैंने तो राजा की बुरे वक्त में इतनी सहायता की और यह मुझे एक बकरी दे कर टरका रहा है। वह कुछ नहीं बोल पाया और बकरी लेकर वापिस आ गया। 4 दिन भी नहीं बीते कि बकरी शांत हो गई।

सेठानी ने फिर से राजा के पास जाने को कहा।

सेठ बुझे मन से दोबारा राजा के पास गया और सारा हाल कह सुनाया।

राजा ने तुरंत अपने आदमी को बुलाया और कहा कि नगरसेठ को एक भैंस दे दो। 10-12 दिन भैंस का दूध बेच कर काम चलाया।

पर यह क्या?

12 दिन के बाद वह भैंस भी मरण को प्राप्त हो गई।

राजा परोक्ष रूप से सेठ की स्थिति पर नज़र रखे हुए था।

राजा के आदमी ने आकर सेठ को राजा का संदेश सुनाया कि राजा ने आपको बुलाया है।

सेठ जाना तो नहीं चाहता था पर मित्र का संदेश और राजा की आज्ञा मान कर उसे जाना ही पड़ा। सेठ को देखते ही राजा ने कहा कि तुम 10-12 दिन से आए क्यों नहीं? क्या अब तुम्हें मेरी कोई ज़रूरत नहीं है?

सेठ ने अपने मित्र को अपने मन की व्यथा कह सुनाई। उसने पिछला सारा हाल बताया कि जैसे ही स्थिति संभलने लगती है, वैसे ही पुनः डाँवाडोल हो जाती है। समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ?

राजा ने उसे अपने सीने से लगाया और मंत्री की गद्दी पर बिठा दिया और कहा कि मित्र! मेरे होते हुए तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। आज से तुम यह मंत्री-पद संभालो।

सेठ को बहुत आश्चर्य हुआ। “जब मैं पहली बार आया था, तब तो आपने एक बकरी देकर भेज दिया और आज मंत्री-पद दे रहे हो!” 

हाँ! उस समय तुम्हारा पुण्य क्षीण था। तुम सोने को भी हाथ लगाते तो वह मिट्टी हो जाता। मैं तुम्हें कुछ भी देता तो वह खत्म हो जाता। पर तुमने पुरुषार्थ करना नहीं छोड़ा। उसी का फल है कि आज तुम्हारा पुण्य फिर जागृत हो गया है। आज तुम फिर से समृद्धि की ओर बढ़ सकते हो। सच्चे मन से की गई भगवान की पूजा-आराधना से तुम्हारे अन्दर समर्पण की भावना आ गई है।

आपको एक बात बताऊँ!

पीने वाला जब बेहोश होकर गिरता है तो वह स्वयं को बचाने का कोई प्रयास नहीं करता। चाहे वह नाली में गिरे या सड़क पर या गड्ढे में। वह पूर्णतया अपने कर्मों के प्रति समर्पित होता है। उसे न कहीं चोट लगती और न कहीं फ्रैक्चर होता है।

पाप का उदय धीरे-धीरे शांत हो जाता है और वह होश में आ जाता है।

जब कि सामान्य व्यक्ति में गिरते समय समर्पण की भावना नहीं होती और वह सीढ़ी के एक पायदान से गिर कर भी अपनी हड्डी तुड़वा सकता है।

इसलिए किसी समस्या से भागने के स्थान पर उसका दृढ़तापूर्वक सामना करना चाहिए।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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