मृत्यु से भय या मृत्यु का भय?

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मृत्यु से भय या मृत्यु का भय?

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कारण और निवारण

क्या आपने कभी इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास किया है कि हमें मृत्यु का भय लगता है या मृत्यु से भय लगता है?

एक सामान्य व्यक्ति से पूछो तो वह भी यही कहेगा कि मरने से डर लगता है। वह कभी नहीं कहेगा कि मरने का डर लगता है क्योंकि वह भी अपने मन में कहीं न कहीं यह बात बिठा चुका है कि जिसका जन्म हुआ है उसका एक न एक दिन मरण अवश्य होगा।

दिन के बाद रात अवश्य आएगी, सुख के बाद दुःख अवश्य आएगा, जन्म के बाद मृत्यु अवश्य होगी।

जन्म होते ही वह मृत्यु की ओर एक-एक कदम बढ़ाने लगता है। मृत्यु तो उसकी मंज़िल है। मंज़िल पर पहुँच कर एक असीम सुख की प्राप्ति होती है जहाँ सारे दुःख, कष्ट-क्लेश समाप्त हो जाते हैं। भय होता है मज़िल तक पहुँचने वाले रास्ते में आने वाले दुःखों के कारण।

हमें पहाड़ की चढ़ाई करनी है। हम जानते हैं कि वहाँ शिखर पर एक भव्य जिनालय बना हुआ है जिसकी वन्दना करके असीम आनन्द की अनुभूति होती है। पर रास्ते में आने वाली कठिनाइयों के बारे में सोचते हैं तो कदम पीछे हटने लगते हैं।

इसी प्रकार मृत्यु का आना तो पुराना चोला छोड़ कर नया वस्त्र मिलने के समान है जो सब दुःखों से छुटकारा दिला देता है लेकिन उस मंज़िल से पहले आने वाले दुःखों की कल्पना हमें असहज बना देती है।

संत जन अपने मन को दृढ़ बना कर मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की साधना करते हैं। हमारे जैसे गृहस्थ जन क्या करें कि हम भी मृत्यु के भय पर विजय पा सकें?

भय के कारण -

1. संपत्ति

हमने जन्म से लेकर अब तक क्या किया है? शिक्षा प्राप्त की ताकि हम अच्छी Service पा सकें, व्यापार किया ताकि हम अधिक धन कमा सकें। फिर उस धन को संचित करने में लगे रहे, उसकी सुरक्षा करने में सारा जीवन व्यतीत कर दिया।

अंत समय निकट आने लगा तो मन में संपत्ति की सुरक्षा व वृद्धि की चिन्ता सताने लगी और शरीर व्याधियों का घर बन गया।

संत कहते हैं कि - नहीं! चिन्ता नहीं, संतोष धारण करो। 

‘गोधन, गजधन, वाजिधन और रतनधन खान।

जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।।’

अतः संतोष की दवा सम्पत्ति के छुटने के दुःख पर मरहम का काम करेगी और मृत्यु से भय नहीं लगेगा।

2. संक्लेश परिणाम

जब तक शरीर में ताकत थी, हम अपने काम स्वयं करने में सक्षम थे। अब ज्यों-ज्यों मृत्यु निकट आने लगी, शरीर व मन की शक्ति कमज़ोर होने लगी। मन में भय व्याप्त हो गया कि हम दूसरों के अधीन हो गए तो मालूम नहीं हमें कितनी शारीरिक व मानसिक पीड़ा झेलनी पड़ेगी। 

मृत्यु के भय से मुक्त होना चाहते हो तो अभी से सहनशीलता का अभ्यास करो। मन के विपरीत कार्य होने पर भी ‘Let It Go’ का सिद्धांत अपनाओ। ‘जाने दो’ का विचार आते ही मन का संक्लेश समाप्त हो जाएगा और हम अपने मन को प्रभु भक्ति में लगा सकेंगे।

कबीरदास जी कहते हैं -

‘चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवा बेपरवाह।

जिसको कछु न चाहिए, सोई साहंसाह।।’

3. संतति

संतान की चिन्ता आदमी को न तो चैन से जीने देती है और न ही मरने। संतान अच्छी हो आज्ञाकारी हो, इसके लिए उसे समय व संस्कार दो।

आज के भौतिक युग में हम संतान का पालन-पोषण पैसे से करना जानते हैं जो उन्हें भौतिक सुख-सुविधाएं तो दे सकता है पर अच्छे संस्कार नहीं। जिन संस्कारों का बीजारोपण बच्चे के मन में बचपन से ही कर दिया जाता है, वे समय पाकर पल्लवित होते हैं, पुष्पित होते हैं और हमारे जीवन को अंत समय में सुगंध से भर देते हैं। 

बच्चों व परिवार के लिए समय का निवेश करो। वे भी आपके लिए समय निकाल कर आपकी सेवा करेंगे और आप मृत्यु के भय से मुक्त हो जाओगे।

4. स्वास्थ्य

मृत्यु निकट आने पर सभी को अपने स्वास्थ्य के प्रति भय होना स्वाभाविक है। स्वस्थ रहने के लिए आरम्भ से ही खान-पान में संयम का पालन करो। यदि भोजन की शुद्धता व नियमितता का ध्यान रखा जाए तो आदमी अंतिम श्वास तक स्वस्थ रह सकता है।

भूख से कम भोजन करो, सात्विक भोजन करो जो रुचिकर भी हो और सुपाच्य भी हो।

कहते हैं -

जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन।

जैसा पीओ पानी, वैसी होवे वाणी।।

5. दुर्बुद्धि

हमने संपत्ति के लोभ-परिणाम से बचने के लिए संतोष को धारण किया, संक्लेश परिणाम से बचने के लिए सहनशीलता का कवच बना लिया, संतान को समय दिया ताकि वे संस्कारवान बन सकें, स्वास्थ्य की रक्षा के लिए संयमित दिनचर्या का पालन किया ताकि हम मृत्यु के भय से बचे रहें। 

इन सब से हमारा शरीर व मन तो भय से मुक्त हो जाएगा पर हमने अपनी आत्मा को सुदृढ़ बनाने के लिए क्या किया? यदि हम सही और गलत में भेद करना जानते हैं तो हमारी बुद्धि हमारे नियंत्रण में रहती है अन्यथा जैसे पानी ढलान की ओर शीघ्रता से बहने लगता है, वैसे ही गलत विचार हमारी बुद्धि को दुर्बुद्धि की ओर बहा कर ले जाते हैं।

दुर्बुद्धि को सद्बुद्धि में बदलने का केवल एक ही उपाय है और वह है सत्संग। बाह्य क्रियाएं केवल बाहर से भयमुक्त करेंगी और आत्मा की दृढ़ता अंतरंग से निर्भय बनाएगी। आत्मा का पोषण सत्संग के बिना नहीं हो सकता। ज्ञान से युक्त आत्मा हर प्रकार की बाधा को पार करने की शक्ति प्रदान करती है।

केवलज्ञान तो जन्म-मरण के बंधन से भी छुटकारा दिला देता है फिर यह मृत्यु का भय तो उसके सामने टिकने का साहस ही नहीं कर सकता।

उपरोक्त बिन्दुओं पर चिंतन करो, मनन करो और मृत्यु के भय से सदा के लिए मुक्त हो जाओ।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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विनम्र निवेदन

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