साधना के सोपान

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साधना के सोपान

Image by S. Hermann & F. Richter from Pixabay

एक राजा था। वह अपने राज्य का संचालन बहुत कुशलता से कर रहा था। वह न्यायप्रिय था और धर्म पर अगाध श्रद्धा रखता था। प्रजा भी उनके राज्य में रह कर स्वयं को धन्य मानती थी। उसके राज्य में कोई भी संत-महात्मा आते तो राजा उनके स्वागत के लिए स्वयं राज्य की सीमा पर उन्हें लेने जाता और आदर सहित अपने राजमहल में उनके रहने का प्रबन्ध करता।

एक बार एक पहुँचे हुए संत का अनके राज्य में आगमन हुआ। संत का प्रवचन इतना प्रभावकारी था कि जब संत वहाँ से अपने आश्रम की ओर जाने लगे तो राजा भी अपना सारा राजपाट छोड़कर उनके साथ जाने के लिए तैयार हो गए। संत ने समझाया कि अभी तुम्हें अपने राज्य के लिए राजमहल में ही रहना चाहिए, लेकिन राजा नहीं माना।

संत ने कहा कि ठीक है, तुम अपने राज्य की व्यवस्था करके कुछ दिनों के बाद आश्रम में आ जाना।

यद्यपि प्रजा नहीं चाहती थी कि राजा किसी अन्य के हाथ में राज्य का संचालन सौप कर जाए, पर राजा की तीव्र इच्छा के आगे वह भी विवश हो गई। एक दिन राजा ने आश्रम की ओर कदम बढ़ाए तो उसके पीछे-पीछे उसकी सेना, घर-परिवार के सदस्य, प्रजाजन, लाव-लश्कर सभी चलने लगे।

जब राजा आश्रम में पहुँचा, तो महात्मा जी आश्रम के आँगन में अपने शिष्यों को एकत्व की साधना का उपदेश दे रहे थे। राजा भी अपने सभी साथियों के साथ वहाँ जाकर बैठ गया। उपदेश की समाप्ति पर उसने महात्मा जी से निवेदन किया कि महात्मन्! मुझे भी एकत्व की साधना का मार्ग बताएँ। मैं अपने राज्य के सभी बंधनों को तोड़कर आपकी शरण में आ गया हूँ।

महात्मा जी ने उसके चारों ओर देखा और कहा कि एकत्व की साधना अकेले रह कर ही की जा सकती है। तुम तो अपने साथ इतना लाव-लश्कर और इतनी भीड़ लेकर आए हो। मैं तुम्हें यह साधना नहीं सिखा सकता। अभी तुम अपने महल में लौट जाओ।

उस दिन राजा को बिना आश्रम में प्रवेश किए आँगन से ही लौट कर आना पड़ा। अगले दिन वह मन में तीव्र उत्कण्ठा लिए अकेला ही आश्रम की ओर चल पड़ा। उसे मन में पूरा विश्वास था कि आज तो मुझे आश्रम में प्रवेश मिल ही जाएगा।

वहाँ पहुँचते ही महात्मा जी ने फिर उसके चारों ओर देखा और कहा कि एकत्व की साधना अकेले रह कर ही की जा सकती है। तुम तो अपने साथ इतनी भीड़ लेकर आए हो। मैं तुम्हें यह साधना नहीं सिखा सकता। अभी तुम अपने महल में लौट जाओ।

राजा हैरान हो गया कि आज मेरे साथ कोई भी नहीं है और महात्मा जी कह रहे हैं कि मैं अपने साथ इतनी भीड़ लेकर आया हूँ। महात्मा जी राजा के मन के असमंजस को जान गए और बोले कि तुमने अपने तन पर इतने महंगे वस्त्रों और आभूषणों की भीड़ जमा कर रखी है, यह तुम्हारी साधना में विघ्न का कारण है। अभी तुम्हें अपने महल में वापिस जाना होगा।

अगले दिन राजा सामान्य-सी सफेद पोशाक में पुनः आश्रम में पहुँचा। परिजनों का व तन का परिग्रह छूट जाने से वह अपने मन को काफ़ी हल्का महसूस कर रहा था। महात्मा जी के दर्शन करके पुनः एकत्व की साधना सिखाने के लिए निवेदन किया।

महात्मा जी ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और कहा कि अभी कुछ दिन यहाँ रहने की आज्ञा दे सकता हूँ। उसके बाद तुम्हारी योग्यता के अनुसार आगे का अभ्यास कराएंगे।

वास्तव में महात्मा जी जान गए थे कि केवल तन की भीड़ कम करने से मन की भीड़ समाप्त नहीं होती जो विचारों के माध्यम से मन को उद्वेलित करती रहती है।

राजा को आश्रम में प्रतिदिन झाड़ू लगाने का काम सौंपा गया। एक बार तो राजा के मन में आया कि मैंने जो काम आज तक नहीं किया, वही काम मुझे यहाँ करना पड़ेगा। फिर उसने सोचा कि चलो! यहाँ कौन देखने आ रहा है कि मैं अपने हाथ में झाड़ू पकड़े हुए हूँ। आश्रम के अन्दर ही तो लगानी है।

ऐसा सोचकर वह महात्मा जी के आदेश का पालन करने लगा। आश्रम में प्रतिदिन झाड़ू लगाने के बाद वह कचरे को एक स्थान पर एकत्रित करता रहा। इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। अब उसे झाड़ू लगाने का अभ्यास हो गया था और उसके मन से ग्लानि का भाव भी समाप्त हो गया था, पर मन में एक ही विचार उठता रहता कि न जाने महात्मा जी कब उसे एकत्व की साधना का मार्ग बताएंगे।

आखिर राजा ने महात्मा जी से पूछ ही लिया। महात्मा जी ने कहा कि समय आने दो। अब तुम्हें यह कचरा टोकरी में भरकर आश्रम के बाहर कुछ दूरी पर बनी कचरापेटी में डालकर आना है। राजा असमंजस में पड़ गया कि आश्रम में तो कोई मुझे देख भी नहीं रहा था, बाहर निकलते ही न जाने किस-किस की निगाहें मुझ पर पड़ेंगी। फिर वह अपने मन को समझाकर कचरा टोकरी में भरकर आश्रम के बाहर निकला। राजा अपने मन की उधेड़बुन में लगा हुआ था कि चलते-चलते वह एक आदमी से टकरा गया और सारा कचरा उस आदमी के सिर पर जा गिरा।

आदमी को क्रोध आना स्वाभाविक था। उसने राजा को भला-बुरा कहना शुरू कर दिया कि अंधे हो क्या? सड़क पर चलना भी नहीं आता।

राजा ने भी क्रोधित होकर कहा कि मैंने कोई जानबूझ कर तो नहीं गिराया। तुम्हें तो बोलने की भी तमीज़ नहीं है। तुम जानते नहीं कि मैं कौन हूँ। मैं यहाँ का राजा हूँ, समझे न! कल तक तो तुम मुझे सलाम करते थे और आज ठीक से बोलना भी भूल गए।

महात्मा जी ने अपने शिष्यों को राजा के पीछे देखने के लिए भेजा हुआ था कि मुझे सारा हाल बताना, राजा के व्यवहार में क्या परिवर्तन आया है।

शिष्यों ने महात्मा जी को सारा हाल कह सुनाया। अगले दिन महात्मा जी ने फिर राजा को कचरा बाहर डालकर आने को कहा। राजा ने सोचा कि यदि एकत्व की साधना सीखनी है तो महात्मा जी के आदेश का पालन करना ही होगा।

अगले दिन भी मन में विचारों की आँधी चल रही थी। वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था। फिर किसी महिला से टक्कर हो गई। महिला ने उसके सारे खानदान को गालियाँ दे डाली। राजा ने भी क्रोधित होकर कहा कि मैं यहाँ का राजा हूँ राजा! पहले तुम अपने खानदान से राजा के साथ बोलना सीख कर आओ, फिर मुझमें दोष निकालना।

शिष्यों ने महात्मा जी को उस दिन का सारा हाल कह सुनाया। महात्मा जी ने भी ठान लिया था कि जब तक इसका मन पवित्र विचारों से नहीं भरता, तब तक इसी प्रकार यह साधना के मार्ग से भी बार-बार च्युत होता रहेगा।

पूरा एक वर्ष बीत गया इसी प्रकार मन को साधते-साधते। अब राजा किसी को पलटकर जवाब नहीं देता था। आश्रम में वापिस आकर मन में प्रायश्चित करता था कि दूसरे की गलती निकालने से पहले मुझे अपने गिरेबां में झांक कर देखना है। यह मेरे गलत काम की प्रतिक्रिया ही तो देते हैं जो मुझे अपनी गलती का अहसास कराने के लिए दर्पण का काम करते हैं। 

शिष्य महात्मा जी को प्रतिदिन का सारा हाल कह सुनाते। दो वर्ष बीत गए थे। राजा के मन में अपने राजा होने का अहसास मिट गया था और वह स्वयं को एक साधक मानने लगा था। शुद्ध भोजन, शुद्ध वातावरण, पवित्र लोगों की संगति ने उसके तन को ही नहीं, मन को भी सात्विक विचारों से ओतप्रोत कर दिया था।

अब वह साधना के तीसरे सोपान पर जाने के लिए तैयार था। एक दिन महात्मा जी ने उसे बुलाकर एकत्व की साधना सिखाने के लिए दीक्षा देने की स्वीकृति दे दी।

बंधुओं! जिस प्रकार एक किसान खेत में बीज बोने से पहले ज़मीन तैयार करता है, क्योंकि उसका उद्देश्य बोए हुए बीज से अच्छी फ़सल प्राप्त करना है। यदि बंजर ज़मीन में अच्छी गुणवत्ता वाले बीज बो दिए जाएं तो फ़सल की तो उम्मीद ही करना बेकार है, वे बीज भी नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार कषाय-युक्त मन, धर्म की बातों से सुफल प्राप्त नहीं कर सकता। धर्म का ज्ञान और की गई धार्मिक क्रियाएं भी निष्फल हो जाती हैं। इसलिए साधना के चरम शिखर पर पहुँचने के लिए एक-एक सीढ़ी पर सावधानी से अपने कदम बढ़ाने चाहिएं।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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