एक नास्तिक की भक्ति

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एक नास्तिक की भक्ति

Image by Mircea Ploscar from Pixabay

हरिराम एक मैडिकल स्टोर का मालिक था। सारी दवाइयों की उसे अच्छी जानकारी थी। दस साल का अनुभव होने के कारण उसे अच्छी तरह पता था कि कौन सी दवाई कहाँ रखी है। वह इस व्यवसाय को बड़ी सावधानी और बहुत ही निष्ठा से करता था। दिन भर उसकी दुकान में भीड़ लगी रहती थी, वह ग्राहकों को वांछित दवाइयाँ सावधानी और समझदारी से देता था।

परन्तु उसे भगवान पर कोई भरोसा नहीं था। वह एक नास्तिक था। उसका मानना था कि प्राणी मात्र की सेवा करना ही सबसे बड़ी पूजा है। इसलिए वह ज़रूरतमंद लोगों को दवा नि:शुल्क भी दे दिया करता था।

समय मिलने पर वह मनोरंजन हेतु अपने दोस्तों के संग दुकान में लूडो खेलता था। एक दिन अचानक बारिश होने लगी। बारिश की वजह से दुकान में भी कोई नहीं था। बस फिर क्या, दोस्तों को बुला लिया और सब दोस्त मिलकर लूडो खेलने लगे। तभी एक छोटा लड़का उसकी दुकान में दवाई लेने के लिए पर्चा लेकर आया। उसका पूरा शरीर भीगा हुआ था।

हरिराम लूडो खेलने में इतना मशगूल था कि बारिश में आए हुए उस लड़के पर उसकी नजर नहीं पड़ी। ठंड़ से ठिठुरते हुए उस बच्चे ने दवाई का पर्चा बढ़ाते हुए कहा - “साहब जी! मुझे ये दवाइयाँ चाहिए, मेरी माँ बहुत बीमार है, उनको बचा लीजिए। बाहर और सब दुकानें बारिश की वजह से बंद हैं। आपकी दुकान को देखकर मुझे विश्वास हो गया कि अब मेरी मां बच जाएगी।

उस लड़के की पुकार सुनकर लूडो खेलते-खेलते ही हरिराम ने दवाई के उस पर्चे को हाथ में लिया और दवाई देने को उठा। लूडो के खेल में व्यवधान के कारण अनमने मन से दवाई देने के लिए उठा ही था की बिजली चली गयी। अपने अनुभव से अंधेरे में ही दवाई की शीशी को झट से निकाल कर उसने लड़के को दे दिया।

दवा के पैसे दे कर लड़का खुशी-खुशी दवाई की शीशी लेकर चला गया। अंधेरा होने के कारण खेल बन्द हो गया और दोस्त भी चले गए। अब वह दुकान को जल्दी बंद करने की सोच रहा था। तभी लाइट आ गई और वह यह देखकर दंग रह गया कि उसने जो शीशी दवाई समझकर उस लड़के को दी थी, वह चूहे मारने वाली जहरीली दवा की शीशी थी, जिसे उसके किसी ग्राहक ने थोड़ी ही देर पहले लौटाया था और लूडो खेलने की धुन में उसने अन्य दवाइयों के बीच यह सोच कर रख दिया था कि खेल समाप्त करने के बाद फिर उसे अपनी जगह वापस रख देगा।

उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसकी दस साल की विश्वसनीयता पर मानो जैसे ग्रहण लग गया। वह उस लड़के बारे में सोच कर तड़पने लगा।

यदि यह दवाई उसने अपनी बीमार माँ को पिला दी, तो वह अवश्य मर जाएगी। लड़का भी छोटा होने के कारण उस दवाई को पढ़ना भी नहीं जानता होगा।

एक पल वह अपने लूडो खेलने के शौक को कोसने लगा और दुकान में खेलने के अपने शौक को छोड़ने का निश्चय कर लिया। पर यह बात तो बाद में देखी जाएगी। अब उस गलत दी दवा का क्या किया जाए?

उस लड़के का पता ठिकाना भी तो वह नहीं जानता। कैसे उस बीमार माँ को बचाया जाए?

सच! कितना विश्वास था उस लड़के की आंखों में। हरिराम को कुछ सूझ नहीं रहा था। घर जाने की उसकी इच्छा अब ठंडी पड़ गई। दुविधा और बेचैनी उसे घेरे हुए थी। घबराहट में वह इधर-उधर देखने लगा।

पहली बार श्रद्धा से उसकी दृष्टि दीवार के उस कोने में पड़ी, जहाँ उसके पिता ने जिद्द करके भगवान का छोटा सा चित्र दुकान के उद्घाटन के वक्त लगा दिया था। पिता से हुई बहस में एक दिन उन्होंने हरिराम से भगवान को कम से कम एक शक्ति के रूप में मानने और पूजने की मिन्नत की थी।

उन्होंने कहा था कि भगवान की भक्ति में बड़ी शक्ति होती है। वह हर जगह व्याप्त है और भगवान में हर बिगड़े काम को ठीक करने की शक्ति है। हरिराम को ये सारी बात याद आने लगी। उसने कई बार अपने पिता को भगवान की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर, आँखें बंद करके कुछ बोलते हुए देखा था।

उसने भी आज पहली बार दुकान के कोने में रखी उस धूल भरी भगवान की तस्वीर को देखा और आँखें बंद कर दोनों हाथों को जोड़कर वहीं खड़ा हो गया।

थोड़ी देर बाद वह छोटा लड़का फिर दुकान में आया। हरिराम बहुत अधीर हो उठा। क्या बच्चे ने माँ को दवा समझ के जहर पिला दिया? इसकी माँ मर तो नहीं गयी!!

हरिराम का रोम-रोम कांप उठा। पसीना पोंछते हुए उसने संयत हो कर धीरे से कहा - क्या बात है बेटा? अब तुम्हें क्या चाहिए?

लड़के की आंखों से पानी छलकने लगा। उसने रुकते-रुकते कहा - बाबूजी…बाबूजी! माँ को बचाने के लिए मैं दवाई की शीशी लिए भागा जा रहा था। घर के निकट पहुँच भी गया था, बारिश की वजह से ऑंगन में पानी भरा था और मैं फिसल गया। दवाई की शीशी गिर कर टूट गई। क्या आप मुझे दवाई की दूसरी शीशी दे सकते हैं बाबूजी?

हरिराम हक्का बक्का रह गया। क्या ये सचमुच श्री भगवान जी का चमत्कार है!

हाँ! हाँ! क्यों नहीं?

हरिराम ने चैन की साँस लेते हुए कहा - लो, यह दवाई!

पर मैंरे पास पैसे नहीं है। उस लड़के ने हिचकिचाते हुए बड़े भोलेपन से कहा।

कोई बात नहीं। तुम यह दवाई ले जाओ और अपनी माँ को बचाओ। जाओ जल्दी करो, और हाँ अब की बार ज़रा संभल कर जाना। लड़का ‘अच्छा बाबूजी’ कहता हुआ खुशी से चल पड़ा।

हरिराम की आंखों से अविरल आंसुओं की धार बह निकली। भगवान को धन्यवाद देता हुआ अपने हाथों से उस धूल भरी तस्वीर को लेकर अपनी छाती से पोंछने लगा और अपने माथे से लगा लिया। आज के चमत्कार को वह पहले अपने परिवार को सुनाना चाहता था। 

जल्दी से दुकान बंद करके वह घर को रवाना हुआ। उसकी नास्तिकता की घोर अंधेरी रात भी अब बीत गई थी और अगले दिन की नई सुबह एक नए हरिराम की प्रतीक्षा कर रही थी।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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