मधुर भाषा

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मधुर भाषा

Image by István Mihály from Pixabay

एक बार एक राजा अपने सहचरों के साथ शिकार खेलने जंगल में गया था। वहाँ शिकार के चक्कर में एक दूसरे से बिछड़ गए और एक दूसरे को खोजते हुए राजा एक नेत्रहीन संत की कुटिया में पहुँच कर अपने बिछड़े हुए साथियों के बारे में पूछा।

नेत्रहीन संत ने कहा - महाराज! इस रास्ते पर सबसे पहले आपके सिपाही गए हैं। उनके बाद आपके मंत्री गए। अब आप स्वयं पधारे हैं। इसी रास्ते से आप आगे जाएं तो मुलाकात हो जाएगी।

संत के बताए हुए रास्ते पर राजा ने घोड़ा दौड़ाया और जल्दी ही अपने सहयोगियों से जा मिला और नेत्रहीन संत के कथनानुसार ही एक दूसरे से आगे-पीछे पहुंचे थे।

यह बात राजा के दिमाग में घर कर गई कि नेत्रहीन संत को कैसे पता चला, कौन किस ओहदे  वाला व्यक्ति वहाँ से जा रहा है।

लौटते समय राजा ने अपने अनुचरों को साथ लेकर संत की कुटिया में पहुंच कर संत से प्रश्न किया कि आप नेत्रविहीन होते हुए कैसे जान गए कि कौन जा रहा है और कौन आ रहा है?

राजा की बात सुन कर नेत्रहीन संत ने कहा - महाराज! आदमी की हैसियत का ज्ञान नेत्रों से नहीं, उसकी बातचीत से होता है। सबसे पहले जब आपके सिपाही मेरे पास से गुज़रे, तब उन्होंने मुझसे पूछा कि ऐ अंधे! इधर से किसी आदमी के जाते हुए की आहट सुनाई दी क्या? तो मैं समझ गया कि यह संस्कार विहीन व्यक्ति छोटी पदवी वाले सिपाही ही होंगे।

जब आपके मंत्री जी आए तब उन्होंने पूछा - बाबा जी! इधर से किसी को जाते हुए का अहसास हुआ है क्या? तो मैं समझ गया कि यह किसी उच्च ओहदे वाला है क्योंकि बिना संस्कारित व्यक्ति किसी बड़े पद पर आसीन नहीं होता। इसलिए मैंने आपसे कहा कि सिपाहियों के पीछे मंत्री जी गए हैं।

जब आप स्वयं आए तो आपने कहा - सूरदास जी महाराज! आपको इधर से निकल कर जाने वालों की आहट तो नहीं मिली तो मैं समझ गया कि आप राजा ही हो सकते हैं क्योंकि आपकी वाणी में आदर सूचक शब्दों का समावेश था और दूसरे का आदर वही कर सकता है जिसे दूसरों से आदर प्राप्त होता है।

जिसे जब कभी कोई चीज़ नहीं मिलती तो वह उस वस्तु के गुणों को कैसे जान सकता है? दूसरी बात यह है कि यह संसार एक वृक्ष स्वरूप है जैसे वृक्ष में डालियाँ तो बहुत होती हैं पर जिस डाली में ज्यादा फल लगते हैं, वही झुकती है। इसी अनुभव के आधार पर मैंने नेत्रहीन होते हुए भी सिपाहियों, मंत्री और आपके पद का अनुमान लगाया। अगर ग़लती हुई हो तो महाराज क्षमा करें।

राजा संत के अनुभव से प्रसन्न हो कर मंत्री जी को संत की जीवन-वृत्ति का प्रबंध राजकोष से करने का आदेश दे कर वापस राजमहल आया।

तात्पर्य है कि आजकल हमारा परिवार संस्कार विहीन होता जा रहा है। थोडा-सा ऊँचा पद, पैसा व प्रतिष्ठा पाते ही सब दूसरे की उपेक्षा करने लगते हैं, जो उचित नहीं है।

‘मधुर भाषा’ बोलने में किसी प्रकार का आर्थिक नुकसान नहीं होता है। अतः मीठा बोलने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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