शबरी के पैरों की धूल
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शबरी के पैरों की धूल
Image by Hans Braxmeier from Pixabay
शबरी एक आदिवासी भील की पुत्री थी। देखने में बहुत साधारण, पर दिल से बहुत कोमल थी। इनके पिता ने इनका विवाह निश्चित किया, लेकिन आदिवासियों की एक प्रथा थी कि किसी भी अच्छे कार्य से पहले निर्दोष जानवरों की बलि दी जाती थी। इसी प्रथा को पूरा करने के लिए इनके पिता शबरी के विवाह के एक दिन पूर्व सौ भेड़-बकरियाँ लेकर आए। तब शबरी ने पिता से पूछा - पिताजी इतनी सारी भेड़-बकरियाँ क्यों लाए हो?
पिता ने कहा - शबरी! यह एक प्रथा है जिसके अनुसार कल प्रातः तुम्हारी विवाह की विधि शुरू करने से पूर्व इन सभी भेड़-बकरियों की बलि दी जाएगी। यह कहकर उसके पिता वहाँ से चले गए। प्रथा के बारे में सुनकर शबरी को बहुत दुःख हुआ और वह पूरी रात उन भेड़-बकरियों के पास बैठी रही और उनसे बातें करती रही। उसके मन में एक ही विचार था कि कैसे वह इन निर्दोष जानवरों को बचा पाए। तभी एकाएक शबरी के मन में ख्याल आया और वह सुबह होने से पूर्व ही अपने घर से भाग कर जंगल में चली गई ताकि उन निर्दोष जानवरों को बचा सके। शबरी भली-भांति जानती थी कि अगर एक बार वह इस तरह से घर से जाएगी तो कभी उसे घर वापस आने का मौका नहीं मिलेगा। फिर भी शबरी ने खुद से पहले उन निर्दोषों की ज़िन्दगी के बारे में सोचा।
घर से निकल कर शबरी एक घने जंगल में जा पहुँची। अकेली शबरी जंगल में भटक रही थी। तब उसने शिक्षा प्राप्ति के उद्देश्य से कई गुरुवरों के आश्रम में दस्तक दी, लेकिन शबरी निम्न जाति की थी इसलिए उसे सभी ने दुत्कार कर निकाल दिया। शबरी भटकती हुई मतंग ऋषि के आश्रम में पहुँची और उसने शिक्षा-प्राप्ति की इच्छा व्यक्त की। मतंग ऋषि ने शबरी को सहर्ष अपने गुरुकुल में स्थान दे दिया।
अन्य सभी ऋषियों ने मतंग ऋषि का तिरस्कार किया लेकिन मतंग ऋषि ने किसी की परवाह न करते हुए शबरी को अपने आश्रम में रहने की अनुमति दे दी। शबरी ने गुरुकुल के सभी आचरणों को आसानी से अपना लिया और दिन-रात अपने गुरु की सेवा में लग गई।
शबरी यत्न से शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ आश्रम की सफाई, गौशाला की देख-रेख, दूध दोहने के कार्य के साथ सभी गुरुकुल वासियों के लिये भोजन बनाने के कार्य में लग गई। कई वर्ष बीत गये, मतंग ऋषि शबरी की गुरु-भक्ति से बहुत प्रसन्न थे।
मतंग ऋषि का शरीर दुर्बल हो चुका था इसलिये उन्होंने एक दिन शबरी को अपने पास बुलाया और कहा - पुत्री! मेरा शरीर अब दुर्बल हो चुका है, इसलिए मैं अपनी देह यहीं छोड़ना चाहता हूँ, लेकिन उससे पहले मैं तुम्हें आशीर्वाद देना चाहता हूँ। बोलो पुत्री! तुम्हें क्या चाहिए?
आँखों में आंसू भरकर शबरी मतंग ऋषि से कहती है - हे गुरुवर! आप ही मेरे पिता हैं, मैं आपके कारण ही जीवित हूँ, आप मुझे अपने साथ ही ले जाएं।
तब मतंग ऋषि ने कहा - नहीं पुत्री! तुम्हें मेरे बाद मेरे इस आश्रम का ध्यान रखना है। तुम जैसी गुरु-परायण शिष्या को उसके कर्मो का उचित फल मिलेगा। एक दिन भगवान राम तुमसे मिलने यहाँ आएंगे और उस दिन तुम्हारा उद्धार होगा और मोक्ष की प्राप्ति होगी। इतना कहकर मतंग ऋषि अपनी देह त्याग कर समाधि ले लेते हैं।
उसी दिन से शबरी हर रोज प्रातः उठकर बाग़ में जाती, ढेर सारे फूल इकट्ठे करती, सुंदर-सुंदर फूलों से अपना आश्रम सजाती क्योंकि उसे भगवान राम के आने का कोई निश्चित दिन नहीं पता था। उसे केवल अपने गुरुवर की बात पर यकीन था इसलिए वह रोज श्री राम के इंतजार में समय बिता रही थी। वह रोज़ाना यही कार्य करती थी।
एक दिन शबरी आश्रम के पास के तालाब में जल लेने गई, वहीं पास में एक ऋषि तपस्या में लीन थे। जब उन्होंने शबरी को जल लेते देखा तो उसे अछूत कहकर उस पर एक पत्थर फेंक कर मारा और उसकी चोट से बहते रक्त की एक बूंद से तालाब का सारा पानी रक्त में बदल गया।
यह देखकर संत शबरी को बुरा भला और पापी कहकर चिल्लाने लगा। शबरी रोती हुई अपने आश्रम में चली गई। उसके जाने के बाद ऋषि फिर से तप करने लगा। उसने बहुत से जतन किए लेकिन वह तालाब में भरे रक्त को जल नहीं बना पाया। उसमें गंगा, यमुना सभी पवित्र नदियों का जल डाला गया लेकिन रक्त जल में नहीं बदला।
कई वर्षों बाद, जब भगवान राम, सीता की खोज में वहां आये तब वहाँ के लोगों ने भगवान राम को बुलाया और आग्रह किया कि वे अपने चरणों के स्पर्श से इस तालाब के रक्त को पुनः जल में बदल दें।
राम उनकी बात सुनकर तालाब के रक्त को चरणों से स्पर्श करते हैं लेकिन कुछ नहीं होता। ऋषि उन्हें जो-जो करने को बोलते, वे सभी करते लेकिन रक्त जल में नही बदला।
तब राम ऋषि से पूछते हैं - हे ऋषिवर! मुझे इस तालाब का इतिहास बताएं। तब ऋषि उन्हें शबरी और तालाब की पूरी कथा बताते हैं और कहते हैं - हे भगवान! यह जल उसी शुद्र शबरी के कारण अपवित्र हुआ है।
तब भगवान राम ने दुःखी होकर कहा - हे गुरुवर! यह रक्त उस देवी शबरी का नहीं, मेरे हृदय का है जिसे तुमने अपने अपशब्दों से घायल किया है। भगवान राम ऋषि से आग्रह करते हैं कि मुझे देवी शबरी से मिलना है। तब शबरी को बुलावा भेजा जाता है। राम का नाम सुनते ही शबरी दौड़ी चली आती है।
‘राम! मेरे प्रभु!’ कहती हुई जब वह तालाब के समीप पहुँचती है, तब उसके पैर की धूल तालाब में चली जाती है और तालाब का सारा रक्त जल में बदल जाता है।
तब भगवान राम कहते हैं - देखिए गुरुवर! आपके कहने पर मैंने सब किया लेकिन यह रक्त, भक्त शबरी के पैरों की धूल से जल में बदल गया।
शबरी जैसे ही भगवान राम को देखती है, उनके चरणों को पकड़ लेती है और अपने साथ आश्रम में लाती है। उस दिन भी शबरी रोज़ की तरह सुबह से अपना आश्रम फूलों से सजाती है और बाग़ से सबसे मीठे बेर स्वयं चख-चख कर अपने प्रभु राम के लिये चुनती है।
वह पूरे उत्साह के साथ अपने प्रभु राम का स्वागत करती है और बहुत प्रेम से उन्हें अपने जूठे बेर परोसती है। भगवान राम भी बहुत प्रेम से उसे खाने के लिए उठाते हैं। तब उनके साथ गए लक्ष्मण उन्हें रोककर कहते हैं - भ्राता! ये बेर जूठे हैं। तब राम कहते हैं - लक्ष्मण! ये बेर जूठे नहीं, सबसे मीठे हैं, क्योंकि इनमें प्रेम की मिठास है। और वे बहुत प्रेम से उन बेरों को खाते हैं।
मतंग ऋषि का कथन सत्य होता है और देवी शबरी को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
और इस तरह भगवान राम, शबरी के राम कहलाए..!!
जय श्री राम
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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