दीपक
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दीपक
Image by anncapictures from Pixabay
एक अमीर आदमी विभिन्न मंदिरों में जन कल्याणकारी कार्यों के लिए धन देता था। विभिन्न उत्सवों व त्योहारों पर भी वह दिल खोलकर खर्च करता। शहर के लगभग सभी मंदिर उसके दिए दान से उपकृत थे। इसीलिए लोग उसे काफी इज्जत देते थे।
उस संपन्न व्यक्ति ने एक नियम बना रखा था कि वह प्रतिदिन मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाता था। दूसरी ओर एक निर्धन व्यक्ति था जो नित्य तेल का दीपक जलाकर एक अंधेरी गली में रख देता था। जिससे लोगों को आने-जाने में असुविधा न हो। संयोग से दोनों की मृत्यु एक ही दिन हुई। दोनों यमराज के पास साथ-साथ पहुंचे। यमराज ने दोनों से उनके द्वारा किए गए कार्यों का लेखा-जोखा पूछा। सारी बात सुनकर यमराज ने धनिक को निम्न श्रेणी और निर्धन को उच्च श्रेणी की सुख-सुविधाएं दी।
धनिक ने क्रोधित होकर पूछा - “यह भेदभाव क्यों? जबकि मैंने आजीवन भगवान के मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाया और इसने तेल का दीपक रखा। वह भी अंधेरी गली में, न कि भगवान के समक्ष?”
तब यमराज ने समझाया - “पुण्य की महत्ता मूल्य के आधार पर नहीं कर्म की उपयोगिता के आधार पर होती है। मंदिर तो पहले से ही प्रकाशयुक्त था। जबकि इस निर्धन ने ऐसे स्थान पर दीपक जलाकर रखा, जिसका लाभ अंधेरे में जाने वाले लोगों को मिला। उपयोगिता इसके दीपक की अधिक रही। तुमने तो केवल वाहवाही के लिए और अपना परलोक सुधारने के स्वार्थ से दीपक जलाया था।”
सार यह है कि ईश्वर के प्रति स्वहितार्थ प्रदर्शित भक्ति की अपेक्षा परहितार्थ कार्य करना अधिक पुण्यदायी होता है और ऐसा करने वाला ही सही मायनों में पुण्यात्मा होता है क्योंकि ‘स्वार्थ’ से ‘परमार्थ’ सदा वंदनीय होता है।
इसके अतिरिक्त कुछ लोग सिर्फ मंदिर को ही भगवान का घर और विशेष आवरण धारीयों को ही ईश्वर के निकटवर्ती मान लेते हैं। जबकि इतनी बड़ी दुनिया बनाने वाले को सिर्फ मंदिर में सीमित कर देना उचित नहीं।
मंदिर पूजा गृह है, जहाँ हम अपने अंतःवासी भगवान से मिलते हैं। अतः मंदिर में दीया जलाने का अर्थ है स्वयं को दीपक दिखाना। पर भगवान कण-कण वासी हैं। उनकी सेवा के लिये मंदिर के बाहर आना होगा और जीव मात्र, चर-अचर जगत की सेवा और सत्कार का भाव तन-मन में जगाना होगा।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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