श्रद्धा और विश्वास
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श्रद्धा और विश्वास
Image by Gabriele M. Reinhardt from Pixabay
एक सेठ बड़ा धार्मिक था, संपन्न भी था। एक बार उसने अपने घर पर पूजा-पाठ रखी और पूरे शहर को न्यौता दिया। पूजा-पाठ के लिए बनारस से एक विद्वान शास्त्री जी को बुलाया गया और खान-पान के लिए शुद्ध घी के भोजन की व्यवस्था की गई। जिसके बनाने के लिए एक महिला जो पास के गांव में रहती थी को सुपुर्द कर दिया गया।
शास्त्री जी कथा आरंभ करते हैं, गायत्री मंत्र का जाप करते हैं और उसकी महिमा बताते हैं, उसके बाद हवन पाठ इत्यादि होता है, लोग बाग आने लगे और अंत में सब भोजन का आनंद लेते घर वापस हो जाते हैं। ये सिलसिला रोज़ चलता है।
भोज्य प्रसाद बनाने वाली महिला बड़ी कुशल थी। वो अपना काम करके बीच-बीच में कथा आदि सुन लिया करती थी।
रोज की तरह एक दिन शास्त्री जी ने गायत्री मंत्र का जाप किया और उसकी महिमा का बखान करते हुए बोले कि इस महामंत्र को पूरे मन से एकाग्रचित होकर किया जाए तो इस भवसागर से पार जाया जा सकता है। इंसान जन्म-मरण के झंझटों से मुक्त हो सकता है।
खैर, करते-करते कथा का अंतिम दिन आ गया। वह महिला उस दिन समय से पहले आ गई और शास्त्री जी के पास पहुंची, उन्हें प्रणाम किया और बोली कि शास्त्री जी आपसे एक निवेदन है।
शास्त्री जी उसे पहचानते थे। उन्होंने उसे चौके में खाना बनाते हुए देखा था। वो बोले - “कहो क्या कहना चाहती हो?”
वो थोड़ा सकुचाते हुए बोली - “शास्त्री जी, मैं एक गरीब महिला हूँ और पड़ोस के गांव में रहती हूँ। मेरी इच्छा है कि आज का भोजन आप मेरी झोपड़ी में करें।”
सेठ जी भी वहीं थे, वो थोड़ा क्रोधित हुए लेकिन शास्त्री जी ने बीच में उन्हें रोकते हुए उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया और बोले - “आप तो अन्नपूर्णा हैं। आप ने इतने दिनों तक स्वादिष्ट भोजन करवाया, मैं आपके साथ कथा के बाद चलूंगा।”
वो महिला प्रसन्न हो गई और काम में व्यस्त हो गई। कथा खत्म हुई और वो शास्त्री जी के समक्ष पहुंच गई। वायदे के अनुसार वो चल पड़े। गांव की सीमा पर पहुंच गए। देखा तो सामने नदी है।
शास्त्री जी ठिठक कर रुक गए। बारिश का मौसम होने के कारण नदी उफान पर थी। कहीं कोई नाव भी नहीं दिख रही थी। शास्त्री जी को रुकता देख महिला ने अपने वस्त्रों को ठीक से अपने शरीर पर लपेट लिया व इससे पहले कि शास्त्री जी कुछ समझते उसने शास्त्री जी का हाथ थाम कर नदी में छलांग लगा दी और जोर जोर से ऊँ भूर्भुवः स्वः ..... ऊँ भूर्भुवः स्वः बोलने लगी और एक हाथ से तैरते हुए कुछ ही क्षणों में उफनती नदी की तेज धारा को पार कर दूसरे किनारे पहुंच गई।
शास्त्री जी पूरे भीग गए और क्रोध में बोले - “मूर्ख औरत, ये क्या पागलपन था। अगर डूब जाते तो...?”
महिला बड़े आत्मविश्वास से बोली - शास्त्री जी डूब कैसे जाते? आप का बताया मंत्र जो साथ था। मैं तो पिछले दस दिनों से इसी तरह नदी पार करके आती और जाती हूँ।
शास्त्री जी बोले - “क्या मतलब??”
महिला बोली कि आप ही ने तो कहा था कि इस मंत्र से भव सागर पार किया जा सकता है। लेकिन इसके कठिन शब्द मुझसे याद नहीं हुए। बस मुझे ‘ऊँ भूर्भुवः स्वः’ याद रह गया तो मैंने सोचा ‘भव सागर’ तो निश्चय ही बहुत विशाल होगा जिसे इस मंत्र से पार किया जा सकता है तो क्या आधे मंत्र से छोटी सी नदी पार नहीं होगी और मैंने पूरी एकाग्रता से इसका जाप करते हुए नदी सही सलामत पार कर ली। बस फिर क्या था मैंने रोज के 20 पैसे इसी तरह बचाए और आपके लिए अपने घर आज की रसोई तैयार की।
शास्त्री जी का क्रोध व झुंझलाहट अब तक समाप्त हो चुकी थी। किंकर्त्तव्यविमूढ़, उसकी बात सुन कर उनकी आँखों में आंसू आ गए और बोले - “माँ! मैंने अनगिनत बार इस मंत्र का जाप किया, पाठ किया और इसकी महिमा बतलाई पर तेरे विश्वास के आगे सब बेसबब रहा।”
“इस मंत्र का जाप जितनी श्रद्धा से तूने किया उसके आगे मैं नतमस्तक हूँ। तू धन्य है कह कर उन्होंने उस महिला के चरण स्पर्श किए। उस महिला को कुछ समझ नहीं आ रहा था, वो खड़ी की खड़ी रह गई। शास्त्री जी भाव विभोर से आगे बढ़ गए और पीछे मुड़ कर बोले - मां! चलो, भोजन नहीं कराओगी, बहुत भूख लगी है।”
🚩दुर्गा प्रसाद मिश्र प्रयागराज🚩
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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विनम्र निवेदन
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धन्यवाद।
का इतनी श्रद्धा हम नवकार मन्त्र पर कर सकते यह मानव जीवन सफल हो जाता
ReplyDeleteनवकार मंत्र पर हमारी श्रद्धा प्रगाढ़ हो तो निःसंदेह सफलता मिलती है। यह मेरा स्वानुभूत अनुभव है।
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