अहंकार और मोह

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अहंकार और मोह

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एक बार एक राजा एक गुरु जी की ख्याति से बहुत प्रभावित हुआ और उसने उन गुरु जी से मिलने हेतु उन्हें बहुमूल्य उपहारों के साथ निमंत्रण भेजा। गुरु ने उस निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया। राजा ने पुनः प्रयास किया - “गुरुदेव। मुझे मेरे महल में आपकी आवभगत करने का अवसर दीजिये। मेरा अनुग्रह स्वीकार करें।”

गुरु ने पूछा - “क्यों? वहाँ क्या तुम मुझे कोई विशेष भेंट दे पाओगे?

“गुरुदेव! मेरा पूरा राज्य आपके लिए भेंट है।”

“नहीं राजन्! आप मुझे वही वस्तु भेंट में दें, जो वास्तव में आपकी हो।”

“गुरु जी! मैं राजा हूँ। यह सारा राज्य मेरा है।”

“राजन्! आपके पूर्वजों ने भी खुद का होने का राज्य पर दावा किया होगा। वे कहां हैं? क्या राज्य उनका रहा? अपने अतीत के जीवन काल में आपने भी अनेक चीजों को खुद का होने का दावा किया होगा। क्या आप अभी भी उन चीज़ों के मालिक हैं? यह आपका भ्रम मात्र है। ऐसी भेंट दीजिये जो वास्तव में आपकी हो।”

राजा अब सोचने लगा कि धन के अलावा वह गुरु को क्या भेंट करें।

“गुरु जी! ऐसा है तो मैं अपना शरीर आपको भेंट करता हूँ।”

“राजन्! तुम्हारा यह शरीर भी एक दिन धूल का ढेर बन जाएगा। एक दिन आप इसका त्याग करके सांसारिक बंधनों से मुक्त होंगे। तो यह कैसे तुम्हारा हो सकता है? ऐसी भेंट दीजिये जो वास्तव में आपकी हो।”

“मेरा राज्य मेरा नहीं है और मेरा शरीर भी मेरा नहीं है। तो गुरु जी! मेरे मन को भेंट में स्वीकार करिये।”

“राजन्! आपका मन लगातार आपको भटकाता है। आप अपने मन के स्वयं ही गुलाम हैं। जो आपको नियंत्रित करता है, उसे आप अपने अधीन नहीं कह सकते। ऐसी भेंट दीजिये जो वास्तव में आपकी हो।”

राजा दुविधा में पड़ गया। “जब मेरा राज्य, मेरा शरीर, मेरा मन ही मेरा नहीं; तो मेरे पास बचा ही क्या आपको देने के लिए?

गुरु ने मुस्कुरा कर कहा - “राजन्! आप मुझे अपना ‘मैं’ और ‘मेरा’ दे दीजिये।”

गुरु ने राजा से अपना अहंकार और ममकार त्यागने का संकेत दिया। राजा गहन चिंतन में पड़ गया और बोला, “गुरुजी! मैंने अपना सब कुछ आपको समर्पित कर दिया। मेरा अब कुछ नहीं। अब मैं शासन कैसे करूँ? मेरा मार्गदर्शन करिये।”

“राजन्! तुमने हमेशा ‘मेरा राज्य’, ‘मेरा महल’, ‘मेरा परिवार’, ‘मेरा खजाना’, ‘मेरी प्रजा’ आदि की मानसिकता के साथ शासन किया है। अब आपने ‘मेरा’ छोड़ दिया है। आप अब स्वयं के बन्दी नहीं रहे। अब आप परमेश्वर की इच्छा का निमित्त बनिए और अपनी जिम्मेदारियों का वहन ईश्वर को समर्पण करते हुए करिये।”

राजा की आँखें खुल चुकी थी। वह समझ चुका था कि अहंकार और मोह ने उसकी आत्मा को जकड़ कर रखा हुआ था। गुरु को प्रणाम कर वह चल दिया। अब वह स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था, मानो एक बहुत बड़ा बोझ उसकी आत्मा पर से हट गया हो।

मनुष्य जितना अपने मन को सांसारिक बोझ से परे रखेगा, उसकी आत्मा उतनी ही ऊँचाई की ओर उठती चली जाएगी। यही हल्कापन उसे एक दिन मोक्ष के मार्ग पर चलाने में सक्षम हो जाएगा।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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