सिमरन
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सिमरन
Image by Peter Dargatz from Pixabay
जिस-जिस भाव को सिमरते हुए व्यक्ति अपनी देह त्याग करता है, वह उसी-उसी भाव को प्राप्त हुआ करता है। (श्रीमद्भगवद्गीता जी)
सिख सम्प्रदाय के दसवें गुरु श्री गोविंद सिंह जी के समय एक राष्ट्र भक्त, राम भक्त हुए हैं वंदा जी! इन्होंने राम-राम जपते हुए, परमेश्वर का सिमरन करते हुए देश की सेवा की है, राष्ट्र की सेवा की है और समाज की सेवा की है।
एकदा गुरु गोविंदसिंह जी इनके आश्रम में पहुँचे। औपचारिकताओं के उपरान्त गोविंद सिंह जी ने पूछा - वंदा! तेरे गुरु कौन हैं?
वंदा ने कहा - सच्चे पातशाह! मेरे गुरु का नाम तो अगमनाथ है।
कहां है वह? क्या मुझे उनसे मिलवाओगे नहीं?
वंदा ने गंभीर भाव से कहा - वे तो शरीर छोड़ चुके हैं महाराज! इस वक्त परमधाम में बैकुंठ में कहीं होंगे।
यह सुनकर गुरु गोविंद सिंह जी मन्द-मन्द मुस्कुराने लगे पर उस मुस्कान में व्यंग्य भी था। वंदे ने उसे पहचाना और पूछा - क्या बात है सच्चे पातशाह! आप मुस्कुरा तो रहे हैं लेकिन आपकी मुस्कान में व्यंग्य है।
इसलिये वंदा! तेरा गुरु इस आश्रम से बाहर गया ही नहीं है, यहीं है।
क्या अर्थ है, महाराज? कृपया स्पष्ट कीजियेगा। क्या अभिप्राय है आपका?
एक बेल वृक्ष के नीचे दोनों खड़े थे। उस वृक्ष पर एक पका हुआ बेल का फल लगा हुआ था। गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा - बेल के पेड़ पर जो यह फल है, इसे तोड़ लाओ। तेरा गुरु इसी में कीड़ा बन कर ही तो जी रहा है।
फल को तोड़ा गया जैसे ही तोड़ा तो एक कीड़ा रेंगता हुआ बाहर निकला।
पूछो इससे। यह सारी कहानी तुम्हें सुनायेगा।
गुरु अगमनाथ जी ने कहा - वन्दे! इन गुरु महाराज के चरण पकड़ लो। मैं तो पकड़ नहीं सकता। इनसे कहो कि मेरा उद्धार करवायें। इन्हीं की कृपा से मेरा कल्याण होगा। मैं इस निम्न योनि से छूटूँगा।
वंदा की जिज्ञासा और उभरी। उसने पूछा - गुरु महाराज! क्या हुआ था आपके साथ? मेहरबानी करके विस्तार पूर्वक बतायें। आप तो सतत राम-राम जपते थे फिर ऐसी निकृष्ट गति को कैसे प्राप्त हुए?
अगमनाथ जी ने कहा - माधोदास! मैं मृत्यु के वक्त इसी पेड़ के नीचे था। राम-राम का सिमरन कर रहा था। अचानक मेरी दृष्टि ऊपर पेड़ पर लगे इस पके हुए फल पर गई। मन हुआ काश मरने से पहले इसे खा लेता। यह सोच ही रहा था कि प्राण पखेरू उड़ गये।
भगवान ने इस फल में ही कीड़ा बना कर पैदा कर दिया कि जाओ, अब यही फल खाओ। अब बार-बार इस फल में मरता हूँ, जन्मता हूँ। मेरा और अपना उद्धार करवाना चाहते हो तो इन गुरु गोविंद सिंह जी के चरण पकड़ लो।
गीता जी में भगवान श्री स्पष्ट करते हैं कि साधकजनों, अंत समय जो मेरा स्मरण करता हुआ देह को त्यागता है वह निसंदेह मुझे प्राप्त होता है। जिस-जिस भाव को भी प्राप्त हो कर व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी भाव को वह प्राप्त होता है।
यही इनके साथ हुआ।
How important is 'Simran' in our lives!
यह एक ही दिन से नहीं हो जायेगा साधकजनों! बहुत अभ्यास की ज़रूरत है और निरंतर अभ्यास की ज़रूरत है! ज़िंदगी भर का अभ्यास ही आपको अंत समय परमात्मा का सिमरन बना रहे, इसके लिए तैयार करता है।
मृत्यु के समय परमात्मा के सिवा हमें सब कुछ याद आता है। एक वह ही है जो याद नहीं आता। उसे याद करना पड़ता है। बाकी सब कुछ स्वतः याद आता रहता है। याद क्या, बाकी तो भूलता ही नहीं है। परमेश्वर को याद करना पड़ता है। उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है और बाकी संसार-परिवार अपने आप सब कुछ अनायास ही याद आते हैं और याद रहते हैं।
परमात्मा का स्मरण नित्य-निरंतर सतत तेल की धारावत बना रहे, साधकजनों! इसी में हमारा कल्याण है।
संत-महात्मा फरमाते है कि मृत्यु के समय चार करोड़ बिच्छू एक साथ डंक मारे इतना दर्द, इतनी पीड़ा हुआ करती है और ऐसे समय मे मुख से राम-राम का आसानी से निकलना संभव नहीं।
ऐसे समय में केवल वही जन्म जीत जाया करते हैं जिन्होंने सतत राम-राम का अभ्यास किया हुआ होता है। अंत समय फिर उन्हीं के मुख से राम-राम निकलता है और तदुपरान्त राम को भी वही प्राप्त हुआ करते हैं।
कीजियेगा प्रयास साधकजनों! सुकृत करते हुए सतत राम-राम जपने का!
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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