मेरे पति मेरे देवता (भाग - 19)
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मेरे पति मेरे देवता (भाग - 19)
श्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं
श्रीमती ललिता शास्त्री की ज़ुबानी
प्रस्तुतकर्ता - श्री उमाशंकर (जून, 1967)
असल गहना
जिन दिनों हम बहादुरगंज वाले मकान में थे, उन्हीं दिनों शास्त्री जी के चाचाजी को किसी धन्धे में घाटा लग गया, या किसी तरह का कोई बाकी रुपया देना पड़ा था, जिसकी ठीक से हमें जानकारी नहीं है और न ही कभी हमने शास्त्री जी से इस बारे में पूछा था।
एक दिन शास्त्री जी ने दुनिया की मुसीबतों और मनुष्यों की मज़बूरियों को समझाते हुए जब हमसे गहनों की माँग की, तब क्षण भर के लिए हमें कुछ अच्छा नहीं लगा और गहनों को देने में भी तनिक हिचकिचाहट हुई। पर यह सोच कर कि उनकी प्रसन्नता में ही अपनी प्रसन्नता है, हमने गहने दे दिए। केवल टीका, नथनी और बिछिया रख लिए थे। ये हमारे सुहाग वाले गहने थे।
शास्त्री जी ने उस समय तो कुछ नहीं कहा, पर दूसरे दिन वे भी अपनी पीड़ा न रोक सके - ‘जब तुम मिर्ज़ापुर जाओगी और लोग गहनों के सम्बन्ध में पूछेंगे, तब क्या कहोगी?’
हम मुस्कुराई और कहा - ‘उसके लिए आप चिन्ता न करें। हमने बहाना सोच लिया है। कह देंगी कि गांधी जी के कहने के अनुसार हमने गहना पहनना छोड़ दिया है। इस उत्तर पर कोई शंका नहीं कर सकेगा।’
शास्त्री जी कुछ देर चुप रहे, फिर बोले - ‘तुम्हें यहाँ बहुत तकलीफ़ है, इसे मैं अच्छी तरह समझता हूँ। तुम्हारा विवाह बहुत अच्छे और सुखी परिवार में हो सकता था। लेकिन अब जैसा है, वैसा है। तुम्हें आराम देना तो दूर रहा, तुम्हारे बदन के सारे गहने भी उतरवा लिए।’
‘पर जो असल गहना है, वह तो आप हैं। हमें बस वही चाहिए। आप उन गहनों की चिन्ता न करें। समय आने पर फिर बन जाएंगे। सदा ऐसे ही दिन थोड़े ही रहेंगे। दुःख-सुख तो लगा ही रहता है।’
शास्त्री जी ने आगे कुछ नहीं कहा। बस मौन टहलते रहे। हम दूसरे काम में लग गई।
क्रमशः
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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