मेरे पति मेरे देवता (भाग - 20)
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मेरे पति मेरे देवता (भाग - 20)
श्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं
श्रीमती ललिता शास्त्री की ज़ुबानी
प्रस्तुतकर्ता - श्री उमाशंकर (जून, 1967)
शास्त्री जी पर डाँट-फटकार
बहादुरगंज के मकान में नीचे भी जगह थी। रसोई नीचे होती थी। गौतम जी बगल के मकान में रहते थे। गौतम जी की पत्नी से हमारी बहुत बनती थी। किसी काम से अम्माजी को रामनगर जाना पड़ा। जाते समय हमें जो समझाना था, उसे तो समझाया ही था, शास्त्री जी को भी सिद्धा-बारी के लिए सहेज गई थी, क्योंकि आटा और दूसरे गृहस्थी के सामान लगभग ख़त्म हो चले थे।
शास्त्री जी आरम्भ से दिन में दो रोटियां और थोड़ा चावल और शाम को सिर्फ़ दो रोटियां खाया करते थे। अम्माजी के जाने के बाद हम एक चुटकी आटा सानती, तीन रोटियों के लिए। एक चौथी रोटी भी लगा लेती, जो टिक्की के बराबर होती। दो रोटी और थोड़ा चावल शास्त्री जी को परोस कर कमरे में दे आती और सवा रोटी और थोड़ा चावल हम अपने लिए रख लेती।
जब तक शास्त्री जी भोजन करके, मुँह-हाथ धोने के लिए बाहर निकलते, हम भी खाना खा कर छुट्टी पा लेती। ऐसा हम कई कारणों से करती थी। अगर हम उनके भोजन के बाद खाना खाती थी, तो शायद वे समझते कि हम खदोड़िन हैं और उनके समय पर खाने का मतलब था कि उतना ही कम भोजन करना, जिससे उनके संग हमारा भी भोजन समाप्त हो सके। अन्यथा बाद तक खाते रहने का मतलब फिर खदोड़िन बनना था। इसलिए हमें ऐसा अल्प आहार करना पड़ रहा था। यद्यपि 1-2 बार शास्त्री जी ने टोका भी - ‘बहुत जल्दी खाती हो। रामनगर में तो सुना था कि खाते-खाते सो जाया करती थी। यहाँ ऐसा क्यों? चबा-चबा कर खाना चाहिए, वरना पेट ख़राब हो जाता है।’ हम हाँ-हूँ में उत्तर देकर टाल देती थी।
करीब 20 दिन बाद अम्माजी रामनगर से आई। हमें देखा तो देखती रह गई। हम सूख कर काँटा हो गई थी और कमज़ोरी इतनी आ गई थी कि चलते समय आँखों के सामने अंधेरा छा जाता था। पहले तो अम्माजी ने समझा कि हम बीमार हैं, लेकिन जब भंडार घर में जाकर आटा-चावल देखा, तब पूछताछ करने लगी। हमने सब कुछ बता दिया।
वे हमारे पर बिगड़ी सो तो बिगड़ी ही, पर शाम को शास्त्री जी के आने पर उन्हें बहुत डांटती-फटकारती रही - ‘क्या किसी की लड़की मार डालने के लिए अपने घर लाए हो? सूख कर काँटा हो गई और उससे यह भी नहीं पूछा कि तकलीफ़ क्या है? तुम से सिद्धा लाने को कह गई थी, आटा पिसाने को कह गई थी, कुछ किया?’
शास्त्री जी कपड़े उतारने जाते थे और जब-तब हमें देखने के लिए इधर-उधर देख भी लेते थे। ‘मगर अम्मा! मुझसे किसी ने कुछ कहा हो, तब न! मुझे क्या मालूम कि कौन-सी चीज़ है और कौन-सी चीज़ नहीं है। बताना चाहिए था न!’
‘अगर ऐसी ही बताने वाली होती तो तुम से हम क्यों कह जाते?’ और अम्माजी ने हमारा सारा किस्सा शास्त्री जी को कह सुनाया। बाद में शास्त्री जी हमसे बहुत दुःख प्रगट करते रहे थे।
क्रमशः
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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धन्यवाद।
सुन्दर प्रसंग
ReplyDeleteयह हमारे ईमानदार नेता के जीवन की सच्चाई के प्रसंग हैं जो आज भी हमारे लिए अनुकरणीय व मार्ग दर्शक बन सकते हैं।
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