मेरे पति मेरे देवता (भाग - 21)
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मेरे पति मेरे देवता (भाग - 21)
श्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं
श्रीमती ललिता शास्त्री की ज़ुबानी
प्रस्तुतकर्ता - श्री उमाशंकर (जून, 1967)
काले जामुन
एक बार शास्त्री जी जामुन लेकर आए। बड़े-बड़े काले जामुन देख कर खाने को मन ललचा आया। सोचा कि गिने तो होंगे नहीं, चुपके-से 4-5 उठाकर खा गई। थोड़ी देर बाद चारपाई पर रखे आइना को उठाकर मुँह में देखने लगी, तो काले-काले दाँत चमक उठे। हम जल्दी से भाग कर गुसलखाने में गई और जल्दी-जल्दी दाँतों को साफ़ किया। जामुन खाने से दाँत काले हो गए थे, जिसके कारण हमारी चोरी पकड़े जाने की गुँजाइश थी।
इसी तरह एक बार नुमाइश चलने की बात हुई। पास-पड़ोस की सभी औरतें देख आई थी। हमने भी शास्त्री जी से चलने को कहा। पहले तो इधर-उधर टालते रहे, पर बार-बार कहने पर एक दिन राजी हुए और शाम को आने पर चलने के लिए कहा। उस दिन हमने दूसरी वाली धोती में विशेष रूप से साबुन लगाया। शाम को जल्दी-जल्दी खाना बना कर हाथ मुँह धोया और धोती पहन कर तैयार हो गई।
स्वतन्त्रता मिलने के पहले तक कभी 2, तो कभी 3; उससे अधिक धोतियाँ हमारे पास नहीं रही थी। शास्त्री जी शाम को न आकर रात में आए। किसी काम में फँस गए थे। फिर दूसरे दिन चलने की बात तय हुई, लेकिन उस दिन भी यही हुआ। तीसरे दिन फिर तैयारी हुई। उस दिन छोटी बीबी और आस-पड़ोस की लड़कियाँ हंसी करने लगी - ‘आज भाभी ज़रूर जाएंगी। पक्का वादा कराया गया है। आज भैया को आना ही पड़ेगा, चाहे कोई काम उनका बने या बिगड़े।’
इस तरह की बहुत-सी बातें वे लोग कह कर हंसती रही। लेकिन शास्त्री जी उस दिन भी देर से आए। रात में जब उन्होंने देर हो जाने का कारण बताया और दूसरे दिन निश्चित रूप से चलने को कहा, तब हमने भी तनिक गुस्से में बीबी और दूसरी लड़कियों की बातों का हवाला देते हुए कह दिया कि अगर उनका आना न हुआ तो हमारा खाना-पीना भी बंद हो जाएगा। शास्त्री जी मुस्कुरा कर दूसरी बातों में लग गए।
दूसरे दिन वे ठीक समय से शाम को आ गए। जब चलने की तैयारी हो गई, तब हमने उनसे पाँच रुपए की मांग की। उन के पास केवल डेढ़ रुपया था, जिसे निकाल कर मेरे हाथों पर रख दिया। हमने उसे वापिस कर दिया और नुमाइश जाने से भी ‘नाही’ कर दी। उन्होंने समझाया, लेकिन हम नुमाइश जाने को तैयार नहीं हुए।
मजबूर होकर उन्होंने छोटी बीबी से रुपया मांगा। वह टालमटोल करने लगी, तो वे दूसरे कमरे से बोले - ‘कभी तुम लोग इनकी भी इच्छा पूरी कर दिया करो भाई! कभी-कभी तो मांगती है।’ बीबी ने 5 रुपए निकाल कर दिए। नुमाइश में पहुँच कर जिस दुकान पर हम खड़ी होती और कोई सामान लेने को कहती, तो शास्त्री जी आगे वाली दुकान को अच्छी बता कर उस पर लिवा जाते। इस प्रकार बिना एक पैसे का सामान लिए वे हमें सारी नुमाइश दिखा कर बाहर निकाल लाए।
घर आकर उन्होंने बीबी वाले रुपए लौटवा दिए और बोले - ‘कोई सामान नहीं लिया तो दुखी तो नहीं हो न! दूसरों के पैसों से अपने लिए सामान लेना ठीक नहीं होता। जितना अपने पास है, उसी में संतोष करना चाहिए।’ हमने उस समय उनकी बातों का कोई उत्तर नहीं दिया था, पर उनकी इस भावना का आभास हमें नुमाइश में मिल गया था।
क्रमशः
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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