मेरे पति मेरे देवता (भाग - 25)
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मेरे पति मेरे देवता (भाग - 25)
श्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं
श्रीमती ललिता शास्त्री की ज़ुबानी
प्रस्तुतकर्ता - श्री उमाशंकर (जून, 1967)
जेल का खाना भी गया
हम दोनों उनके पीछे-पीछे प्लेटफार्म तक आई। शास्त्री जी खिड़की से सिर निकाले इधर-उधर देख रहे थे। उन के डिब्बे के पास पहुँचते-पहुँचते गाड़ी चल पड़ी। वे झट से कूद कर नीचे आ गए। पुलिस वाले बड़बड़ाने लगे - ‘यह क्या कर रहे हैं, बाबूजी! हम लोगों की रोज़ी चली जाएगी, आप का क्या बिगड़ेगा? यह धोखे का काम है। आप लोग.........’
लेकिन शास्त्री जी ने जैसे-तैसे हम लोगों को डिब्बे में चढ़ा लिया। टण्डन जी और उनके एक साथी भी चढ़ आए। टण्डन जी जब शास्त्री जी से बातें करने लगे, तब हमसे बोले - ‘तुम बाद में बात करना, बहू। हम कुछ ज़रूरी बातें करके अगले स्टेशन पर उतर जाएंगे।’
फाफामाऊ (फैजाबाद लाइन पर एक स्टेशन) पर टण्डन जी ने दो टिकट व एक पत्र लाकर दिया। जिस स्टेशन पर जिनको पत्र देना था, उन के सम्बन्ध में उन्होंने शास्त्री जी से बता दिया और यह भी कहा कि हम लोगों के खाने-पीने की और लौटने की वे समुचित व्यवस्था कर देंगे। टण्डन जी और उनके साथ वाले महाशय वहीं उतर गए।
आगे चलने पर शास्त्री जी ने पूछा - ‘खाना नहीं लाई हो क्या? चलो! पूड़ियों के चक्कर में जेल का खाना भी गया।’ वे मुस्कुराते हुए दूसरी बातें करने लगे। उन्होंने वास्तविकता का अनुमान लगा लिया था। पर हमारे हृदय में जैसे कुछ बेध गया हो। बहुत रोकने पर भी हम अपने आसूँ न रोक सकी। पास में इतने पैसे भी नहीं थे कि किसी स्टेशन पर कोई सामान लेकर उन्हें खिला सकती।
जब तक वह स्टेशन नहीं आया, शास्त्री जी देश-समाज की ही बातें बताते रहे और समझाते रहे कि ईमानदारी और धीरज का ही सबसे बड़ा बल होता है। उस का सहारा कभी नहीं छोड़ना चाहिए। बिसनाथगंज, शायद उस स्टेशन का यही नाम था, आने पर हम लोग उतर पड़ी। जिन के नाम टण्डन जी ने पत्र लिखा था, वे वहाँ थे। उन्होंने शास्त्री जी के जलपान का प्रबन्ध किया। दूध और मिठाइयां खिलाई। गाड़ी जाने के बाद उन्होंने हम लोगों का भी प्रबन्ध किया।
इलाहाबाद तक के दो टिकट लाकर दिए और रात को 10 बजे चलने वाली गाड़ी में बिठला कर तब वे घर गए। एक बजे के लगभग हम लोगों की गाड़ी इलाहाबाद पहुँची थी।
क्रमशः
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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