मेरे पति मेरे देवता (भाग - 51)

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मेरे पति मेरे देवता (भाग - 51)

श्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं

श्रीमती ललिता शास्त्री की ज़ुबानी

प्रस्तुतकर्ता - श्री उमाशंकर (जून, 1967)

भरोसा भगवान का

शास्त्री जी नैनी जेल भेजे गए थे अथवा किसी दूसरी जेल में, इसका पक्का पता नहीं था, क्योंकि महीनों बीत जाने पर भी इन की कोई चिट्ठी नहीं मिल सकी थी। तबीयत घबराया करती थी। नाना प्रकार के विचार मन में उठते रहते थे। अशुभ की ओर अधिक ध्यान जाता था। बहुत रोकने पर भी आँखों से आँसू नहीं रुक पाते थे।

यद्यपि मन को हर तरह से ढांढस देने का प्रयत्न करती थी, घर और बाहर वाले समझाते रहते थे, लेकिन उसका असर थोड़े समय तक ही होता था। उसके बाद वही पहले वाली हालत हो जाया करती थी। रात में लेटती तो घण्टों एक-टक तारों को निहारा करती और सोचा करती कि वे भी तो इन्हीं तारों के नीचे कहीं लेटे होंगे। हमें इस निहारने में कुछ सन्तोष अवश्य मिलता, लेकिन वह भी तो क्षणिक ही होता। फिर वही चिन्ताएं और व्यथाएं मथानी की तरह हृदय को मथने लगती।

आँखों से पानी बहने लगता और सवेरा हो जाता। धीरे-धीरे हमारी तबीयत भी ख़राब रहने लगी। बुख़ार रहने लगा था। खांसी भी जब-तब आने लगी थी और इस के बाद मुँह से खून भी गिरने लगा।

कोई 6-7 महीने बाद नैनी जेल से शास्त्री जी की चिट्ठी आई। वे सकुशल थे। हमें जैसे दूसरा जीवन मिला हो। झट हमने भी उत्तर में सब की राजी-ख़ुशी लिख भेजी। शास्त्री जी ने चिट्ठी में यह भी लिखा था कि पत्रों के लिखने की जितनी सुविधा मिलनी चाहिए, उतनी नहीं दी गई है। इसलिए वे जल्दी-जल्दी पत्र नहीं लिख सकेंगे। महीने में केवल एक पत्र ही लिखा जा सकता था।

कोई एक बरस बीतने के बाद सरजू प्रसाद की रिहाई हुई। शास्त्री जी का समाचार लेकर वे मिर्ज़ापुर भी आए। यहाँ से लौट कर वे स्टेशन पर पहुँचे ही थे कि पुनः गिरफ्तार करके नैनी जेल भेज दिए गए। सरजू प्रसाद जी ने जैसा हमें देखा था, वैसा ही शास्त्री जी को बता दिया था।

जब शास्त्री जी की चिट्ठी आई, तब उन्होंने हमारी तबीयत का हाल पूछा और सही-सही तुरन्त लिखने को कहा था। उन्हें सरजू प्रसाद जी से मालूम हुआ था कि हम बहुत दुर्बल हो गई हैं। हम ने उत्तर तो फौरन दिया, लेकिन तबीयत का सही हाल नहीं लिखा। हमने ऐसा जानबूझकर किया था। उन्हें बीमारी का हाल लिखने से क्या लाभ था? अकारण उन्हें भी चिन्ता में डालना था। इससे उनकी भी तो तबीयत ख़राब हो सकती थी।

हमने अपनी चिट्ठी में लिख दिया था कि सरजू प्रसाद जी का कहना ग़लत नहीं था, लेकिन अब तबीयत ठीक है। पहले बुख़ार आया था और उसी के कारण कमज़ोरी आ गई थी।

कुछ समय बाद हफ्ते में एक बार चिट्ठी लिखने की छूट मिल गई। शास्त्री जी हफ्तेवारी चिट्ठी लिखने लगे। एक सप्ताह में हमें और दूसरे सप्ताह में अम्मा जी को और तीसरे सप्ताह में ननिहाल वालों को। इस प्रकार वे बारी-बारी से सब को चिट्ठियां भेजने लगे थे। हमारी चिट्ठी के अन्त में यह ज़रूर लिख देते कि अगले सप्ताह वे किस को चिट्ठी भेज रहे हैं तथा हमें किस सप्ताह में दोबारा भेज सकेंगे।

हमारी तबीयत का हाल वे हर चिट्ठी में पूछते। हम भी हर चिट्ठी में संतोषजनक लिख देती। यद्यपि वास्तविकता यह नहीं थी। हमारी तबीयत पहले से अधिक ख़राब रहने लगी थी। इसी बीच हरि और कुसुम को टाइफाइड हो गया। एक और मुसीबत सामने आ गई। भगवान पर भरोसा रख कर थोड़ी-बहुत जो दवाई हो सकती थी, वह होती रही।

क्रमशः

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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