मेरे पति मेरे देवता (भाग - 53)

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मेरे पति मेरे देवता (भाग - 53)

श्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं

श्रीमती ललिता शास्त्री की ज़ुबानी

प्रस्तुतकर्ता - श्री उमाशंकर (जून, 1967)

पूर्णिमा का स्नेह

शास्त्री जी को इतने से भी संतोष नहीं हुआ। उन्होंने श्रीमती पूर्णिमा बनर्जी को लिख कर इस काम में मदद मांगी और हमें मिर्ज़ापुर से बुला कर डॉक्टरों को दिखाने को कहा। पूर्णिमा जी ने वैसा ही किया। उन्होंने हमारे भतीजे को मिर्ज़ापुर भेजा। हम बच्चों सहित इलाहाबाद आ गई। मुट्ठीगंज मोहल्ले में मकान लिया और हमारी दवाई होने लगी। डॉक्टरों ने हमें टी.बी. का रोगी घोषित कर दिया था।

अवस्थी जी डॉक्टर हमारी दवा कर रहे थे और बड़ी तत्परता से कर रहे थे। शास्त्री जी के प्रति उन्हें बड़ी श्रद्धा थी। इस कारण और भी हमें शीघ्र निरोग कर देना चाहते थे। उन का यह वाक्य हमें आज तक नहीं भूला है, जो उन्होंने हमसे अपनी फ़ीस लेने को नाही करते हुए कहा था - ‘जो देश के लिए इतना कर सकता है, उसके लिए हम यह भी नहीं कर सकते हैं!’

दवा होती रही। पूर्णिमा जी रोज़ ‘जार्ज टाउन’ से आती, हमारा हाल-चाल पूछती और जो कुछ कहना-सुनना होता, कहती। उन्होंने हमें छोटी बहिन के समान समझ कर जैसा स्नेह दिया था, शायद अब जीवन में वैसा मिलना कठिन है। वे आज हमारे बीच नहीं हैं, पर हम समझती हैं कि जितनों के सम्पर्क में वे आई थी, उन्हें वे सब कभी भी नहीं भूल सकेंगे। देश के लिए तो उन्होंने अपना सर्वस्व ही न्यौछावर कर दिया था। वे अनुकरणीय महिला थी।

जैसी हमारी बीमारी थी, उसमें समय से भोजन करना, समय से दवाई पीना, समय से बुख़ार देखना आदि बातें बड़ी ज़रूरी थी, जो बिना घड़ी के नहीं हो सकती थी। घड़ी हमारे पास थी नहीं। एक दिन पूर्णिमा जी  एक कलाई वाली घड़ी लेकर आई और उसे हमारे सिरहाने रखती हुई बोली - ‘अब सब कुछ आपको समय से करना होगा, घड़ी देख कर। यह श्री विजयानन्द पाठक की है। वे गिरफ्तार हो गए हैं। जेल में घड़ी गुम न हो जाए, इस वजह से जाते समय मुझे रखने के लिए दे कर गए थे। छूट कर आने पर उन्हें लौटा दूंगी। तब तक आप अपने पास रखिए। आप के लिए घड़ी बहुत ज़रूरी है।’ घड़ी से देख-देख कर हम सब कुछ करने लगी।

क्रमशः

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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