रामप्रसाद बिस्मिल की माँ - मायावती
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वीर माताएँ
(क्रान्तिवीरों की माताओं के उद्गार)
लेखिका - श्रीमती संगीता अनिल पंवार
रामप्रसाद बिस्मिल की माँ - मायावती
‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात् माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं। पर मित्रों, जिन माताओं ने अपने बच्चों को अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने के लिए मातृभूमि पर न्यौछावर कर दिए और वे बच्चे भी अपनी माताओं के सामने ही फाँसी पर ख़ुशी-ख़ुशी झूल गए, उन माताओं को क्या कुछ झेलना पड़ा होगा, क्या कुछ वेदनाएँ हुई होंगी, उन वेदनाओं, उन भावनाओं को लेखिका ने अपनी कलम से काग़ज़ पर उकेरा है।
‘बिस्मिल’ का अर्थ है - घायल। जो अंग्रेज़ों के अत्याचारों से घायल हो गया था, उसका असली नाम था - रामप्रसाद। उसके पिता का नाम था - पंडित मुरलीधर प्रसाद और माँ का नाम था - मायावती। मूलतः कवि-मन ले कर जन्मे इस मोती के ‘हिन्दुस्तानी समाजचादी प्रजातन्त्र संघटन’ की माला में गूँथा जाने पर देशभक्ति के काव्य के रंग और भी खिलने लगे। उनकी लेखनी की प्रखरता में शहीदी रक्तिमा चमकने लगी।
राजबंदियों के वेष में मेरा राम बहुत कमज़ोर दिख रहा था। उसकी आँखों के पास कालापन आ गया था। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। रूखे-सूखे बाल बिखरे हुए थे। उसने मुझे देखा और उसकी आँखों से आँसू झरने लगे। मैं भी अंदर ही अंदर रोने लगी थी। आज 18 दिसम्बर है। कल 19 को राम को फाँसी होने वाली है। आज और इस क्षण तो मेरा मन विचलित नहीं होना चाहिए था। मैंने अपने दिल पर पत्थर रखते हुए कठोर आवाज़ में कहा - राम, तू मौत से इतना डरता होगा, ऐसा मुझे कभी लगा ही नहीं था। अरे! जिनके राज्य में कभी सूरज नहीं ढलता, उन राज्यकर्ताओं से भी मेरा राम नहीं डरता, ऐसा समझ कर तुझ जैसे पुत्र को जन्म देने पर मुझे गर्व था। पर आज तेरी आँखों से झरने वाली आषाढ़गंगा देख कर मुझे बहुत क्रोध आ रहा है। तू इतना डरपोक था, तो आया ही क्यों था यहाँ तक?
उसने मेरे शब्द सुने और आँसू पोंछते हुए कहा - नहीं माँ, मैं मौत से नहीं डर रहा हूँ। मुझे तो रोना इस बात का आ रहा है कि जिस माँ ने मुझे शहीद बनने के लिए जन्मा, उसको मैंने दुःख के सिवा कुछ नहीं दिया। फाँसी पर तो मैं हँसता हुआ ही जाऊँगा। फिर उसने धीमी आवाज़ में बताया - मैंने राजेन्द्रनाथ के हारमोनियम में अपनी आत्मकथा छिपा कर रखी है, गणेश विद्यार्थी को देने के लिए। उसमें मैंने लिखा है - मुझे इस तरह गढ़ने का सारा श्रेय मेरी माँ को ही जाता है। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में उस का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।
मैंने उसके हाथ पर रूद्राक्ष रखा और शिववर्मा के साथ बाहर आई। शिववर्मा मेरा भतीजा बन कर अंदर आया था।
राम के पिताजी मुझ से पहले ही राम से मिलकर आए थे और बाहर पेड़ के नीचे खड़े मेरा इन्तज़ार कर रहे थे। उन्होंने पूछा - रोई तो नहीं वहाँ, राम के पास?
मेरे उत्तर देने से पहले ही शिववर्मा ने कहा - नहीं, माताजी ने तो अपनी आँखों में आँसू भी नहीं आने दिए। आगे उसने कहा - अंग्रेज़ लोग कहते हैं कि क्या मालूम ये हिन्दुस्तानी किस मिट्टी के बने हैं? फाँसी पर चढ़ते हुए न ये रोते हैं, न इनके माँ-बाप रोते हैं। हमारे देश में ऐसे लोग होते, तो हम उनकी तारीफ़ करते नहीं अघाते। ... अंग्रेजों को हमारी तारीफ़ के पुल बाँधने से पहले तो आप जैसी माताओं के चरणों की धूल को अपने माथे पर लगा लेनी चाहिए।
हम गोरखपुर की धर्मशाला में रुके थे। रात को मेरी साँस ऊपर-नीचे होने लगी। दूसरे दिन राम को फाँसी जो होने वाली थी। अपने राम के अनेक रूप मनःपटल पर आने लगे।
हम आर्यसमाजी हैं। राम के पिताजी पंडित थे और प्राथमिक शाला में शिक्षक थे। हमारा चरितार्थ जैसे-तैसे चल जाता था। राम का जन्म हुआ - 1896 में। बचपन से ही वह बहुत चंचल था। उसकी चंचलता को लगाम लगाने के लिए उसके पिताजी ने उसे स्कूल में भर्ती करा दिया। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, वैसे-वैसे उसका वाचन बढ़ने लगा। पठन-पाठन के विषय बदलने लगे।
एक बार घर आने में बहुत देर हो गई, तो हम दोनों परेशान हो गए थे। मैं तो रोने ही लगी थी। अँधेरा बढ़ रहा था, ऊपर से सर्दी। जैसे ही उसे सामने से आते देखा, मेरी चिंता क्रोध में परिवर्तित हो गई - कहाँ गया था तू? मैं ज़ोर से बोली। मेरी ओर आश्चर्य से देखते हुए उसने जवाब दिया - गांधी जी की सभा में। उत्तर सुनते ही उसके पिताजी ने उसे पास लेते हुए समझाते हुए कहा - बेटे, ऐसा मत करो। मेरी नौकरी छूट जाएगी। तुझे भी आगे जाकर अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी।
उस पर उसने झट से कहा - मैं नहीं करूँगा सरकारी नौकरी!
तो मैंने गुस्से से कहा - तो फिर क्या करोगे? अपना पेट काट कर तुझे पढ़ा रहे हैं कि तू हमें दो रोटी खिलाएगा।
राम को हमारी दलीलें जँची नहीं। लखनऊ कॉलेज में पढ़ने गया। पर वहाँ बहुत जल्दी ‘मातृवेदी’ संस्था में शामिल हो गया और साल के अंदर-अंदर ही घर आया और बोला - मैं कॉलेज छोड़ कर आया हूँ। अपने आप को देशकार्य के लिए समर्पित कर दिया है। मैं तो रोने लगी क्योंकि यह सुन कर मुझे झटका लगा। उसने बैठ कर आगे मुझसे कहा - तुम जैसी माताएँ अपने पुत्रों को भारत माँ की सेवा में दे दें तो भारतमाता को गुलामी में नहीं रहना पड़ेगा।
राम की बात तो सही थी। मैंने भी मन ही मन एक बात तय कर ली थी कि राम की यथाशक्ति मदद करूँगी। आगे जाकर उसे मैंने ही माउझर पिस्तौल खरीदने के लिए सवा सौ रुपए दिए थे। एक बार मुझसे 200 रुपए ले गया था और अपनी पुस्तक ‘अमेरिका को स्वातन्त्र्य कैसे मिला’ प्रसिद्ध करके एम्बुलैन्स स्टाफ के वेष में दिल्ली जाकर अपनी पुस्तक की प्रतियाँ बेच कर 600 रुपए कमाए थे। उसमें से मुझे 400 रुपए देकर बचे हुए 200 रुपए क्रान्तिकार्य में दे दिए।
शस्त्रों के लिए उसने - निहलिस्ट रहस्य, बोलशेविक की करतूत, मन की लहर, कैथराइन, स्वदेशी रंग आदि पुस्तकें लिख कर बेचने का उपक्रम चालू कर दिया। पर फिर भी धन कर्ज़ के रूप में लिया जाता था और बंगाल ब्रांच या इन्डिपेन्डेन्ट किंगडम या युनाइटिड इण्डिया के नाम से रसीदें दी जाती थी।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक पर इसकी बहुत भक्ति थी। एक बार तिलक जी लखनऊ काँग्रेस के अधिवेशन के लिए आए थे। कार्यकर्ताओं ने उन्हें कार में बिठाया, पर राम और उसके साथी कार के सामने लेट गए। विवश होकर तिलक जी को कार से उतर कर बग्घी में बैठना पड़ा। राम ने बग्घी के घोड़ों को छोड़ दिया और राम व उसके साथियों ने बग्घी खींची।
हम धार्मिक थे, पर सनातनी नहीं थे। अशफाक और राम की दोस्ती इसकी मिसाल थी। कई बार राम और अशफाक दोनों एक ही थाली में खाना खाते थे। एक बार मेरी बेटी शास्त्री देवी के पाँव पर नकली प्लास्टर बाँध कर उसमें हथियार छिपा कर बारी-बारी से बहिन को गोद में उठा कर रेल से शाहजहाँपुर ले गए थे।
काकोरी काण्ड की कल्पना आज़ाद जी के सामने सबसे पहले राम ने ही रखी। वह काम करने से पहले सबकी तरह घर आया था मिलने के लिए। मैंने पूछा - कितने दिन रहोगे? तो उसने कहा - तीन दिन। मैंने कहा - चलो, भागते भूत की लंगोटी ही सही। वह मतलब ठीक से समझ नहीं सका। उसने पूछा - माँ, मैं भूत हूँ? मैंने कहा - नहीं बेटे, तू भूत नहीं है। अंग्रेज़ सरकार भूत है, राक्षस है। इन्होंने कहा - धीमे बोलो। कोई सुनेगा तो क्या कहेगा? मैंने कहा - सुनने दो, हम सब जागेंगे तो ही अपना देश स्वतन्त्र होगा।
रामप्रसाद बिस्मिल, ‘बिस्मिल’ यानि घायल। इसी नाम से वह अपनी कविताएँ लिखा करता था। उसने अपनी लिखी कविता मुझे सुनाई थी -
देशसेवा ही का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं, चित्तौड़ के गढ़ की कसमें।
सरफरोशी की अदा होती है यूँ ही इसमें,
भाई खंजर से गले मिलते हैं आपस में।
फिर 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड हुआ। सरकारी खज़ाना लूटा। यह घटना तो अंग्रेज़ सरकार के लिए एक दहशत बन कर रह गई। उन्होंने धर-पकड़ चालू कर दी। बनवारीलाल फितूर हुआ। शचीन्द्रनाथ बख्शी, मुकुंदलाल गुप्त, मन्मथनाथ गुप्त, मुरारी लाल, केशव चक्रवर्ती पकड़े गए। एक छोटे से कमरे में रामप्रसाद, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रोशनसिंह रात को सोए थे। पुलिस ने छापा मारकर तीनों को पकड़ लिया। अशफाक और चन्द्रशेखर आज़ाद तो बाहर थे।
एक दिन एक साधु हमारे दरवाज़े पर आया और बोला - श्रीराम जी आपका भला करे। मैंने आवाज़ पहचान ली। मैंने कहा - अशफाक बेटे, तुम यहाँ क्यों आए हो? बेटे, पुलिस यहाँ भी घूमती रहती है। उस पर उसने एक कागज़ मुझे दिया और कहा - माता जी, इस पर गोविंदवल्लभ पंत, बी.के.चौधरी, मोहनलाल सक्सेना और चन्द्रभान गुप्त के पते हैं। उनसे विनती कीजिए कि वे हमारी वकालत करें। मैंने उसे कुछ खाने को दिया और कहा - तुम फिक्र मत करो। मैं यह काम कर दूँगी। उस समय वह अपनी माँ - रोशन बी से मिले बिना ही वापिस चला गया था।
वकीलों के प्रयत्नों को यश नहीं मिला। रोशन, राजेन्द्र और राम तीनों को फाँसी की सज़ा सुनाई गई। अशफाक से मेरी वह आख़िरी मुलाकात थी। बाद में वह भी पकड़ा गया और उसे भी फाँसी की सज़ा सुनाई गई। राम ने उसे पत्र लिखा था - प्यारे भाई, तुम्हारा और मेरा सपना एक ही है। हिन्दू-मुस्लिम की एकता। भाई सुनो -
“मरते बिस्मिल, रोशन, लाहिरी, अशफाक अत्याचार से,
होंगे पैदा सैंकड़ों इनके रुधिर की धार से।”
आज़ाद जी को जो चिट्ठी लिखी थी, उसमें था -
“मिट गया जब मिटने वाला, फिर सलाम आया तो क्या?
दिल की बरबादी के बाद, उसका पयाम आया तो क्या?”
19 दिसम्बर को फाँसी के तख्ते की ओर जाते समय राम ने पूर्व दिशा की ओर नमस्कार किया, तो अंग्रेज़ अधिकारी जोन्स ने आश्चर्य से पूछा - सूरज तो पश्चिम में डूब रहा है और तुम पूरब की ओर देखकर नमस्कार क्यों कर रहे हो? उस पर उसने कहा - आज तो डूब रहा है, पर कल सुबह तो इधर ही उगेगा न! आज मैं फाँसी पर जा रहा हूँ, पर स्वातन्त्र्य प्राप्ति के लिए मैं कल फिर जन्म तो लूँगा ही।
फिर फाँसी के तख्ते की ओर जाते हुए कहा -
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही रहे।
बाकी न मैं रहूँ, न मेरी आरज़ू रहे।
जब तक कि तन में जान जिगर में लहू रहे।
तेरा ही जिक्र हो या तेरी जुस्तजू रहे।
राम का निष्प्राण देह हमारे हाथ रात को सौंपा गया। अंग्रेज़ों के धिक्कार के नारे और ‘भारतमाता की जय’ के नारे आसमान में गूँज रहे थे, पर मेरा राम शांति से सोया था। कल की मेरी हिम्म्त का बाँध आज पूरी तरह से टूट गया था। आज सिसकियों से परे कुछ भी नहीं था। मेरा राम गया और मेरी दुनिया में राम ही नहीं रहा। पर बार-बार ऐसा ही लग रहा था कि अब वह उठेगा ... अब ... मैने उसे गले लगाते हुए कहा - राम, अपनी वह कविता बोल -
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है।
।।भारतमाता की जय।।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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विनम्र निवेदन
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