सुखदेव की बेबे - रल्लीदेई (गंगादेवी)

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वीर माताएँ

(क्रान्तिवीरों की माताओं के उद्गार)

लेखिका - श्रीमती संगीता अनिल पंवार

सुखदेव की बेबे - रल्लीदेई (गंगादेवी)

‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात् माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं। पर मित्रों, जिन माताओं ने अपने बच्चों को अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने के लिए मातृभूमि पर न्यौछावर कर दिए और वे बच्चे भी अपनी माताओं के सामने ही फाँसी पर ख़ुशी-ख़ुशी झूल गए, उन माताओं को क्या कुछ झेलना पड़ा होगा, क्या कुछ वेदनाएँ हुई होंगी, उन वेदनाओं, उन भावनाओं को लेखिका ने अपनी कलम से काग़ज़ पर उकेरा है।


लुधियाना जिले के नौधरा गाँव के रामलाल थापर और रल्लीदेई का बेटा सुखदेव। इसके जन्म से पहले ही इसके पिता की मृत्यु हो गई थी। इसलिए चाचाजी अचिंतराम थापर के घर पर ही इसकी परवरिश हुई। अचिंतराम स्वयं भी देशभक्त थे। उनका प्रभाव बालक पर न होता तो आश्चर्य ही होता! सुखदेव की माँ को गाँव वाले गंगादेवी ही कहते थे। वह भी ज़िन्दगी भर सब की सेवा करती रही। भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की यह तिकड़ी युग-युगान्तर तक भारतीयों के मन में बसी रहेगी।


वह दिन तो मुझे मरते दम तक याद रहेगा। उस दिन मैं बेताबी से सुखी का इन्तज़ार कर रही थी। मैं जान गई थी कि मेरी मौत हर घड़ी नज़दीक ... और नज़दीक आ रही थी। उसी समय सुखी की मीठी आवाज़ आई - पैरी पौना चाची जी, की हाल है? उस पर उसकी चाची मायादेवी फौरन बोल पड़ी - मैं तां ठीक हां, पहले तू दीदी नूं देख, जो तेरी राह देख रही है।

वह सीधे मेरे पास आया। मेरी हालत देख कर उसकी आँखें भर आई। मुझसे बोला नहीं जा रहा था। फिर मैंने कहा - सुखा, तेरे चाचाजी के घर की हालत देखी है तूने! ... मैं तो कुछ क्षण और जिन्दा रहूँगी। तुझे ख़ुश देखना चाह रही थी, पर ... पर ...।

मेरी उस हालत में भी सुखा तन कर बैठ गया और बोला - बेबे, मैं चाचाजी की हालत जाणदां वां, एस करके ही मैंने ब्याह नहीं करना है। मैंने तो देश की सेवा करनी है। मेरी तो आख़िरी साँसें चल रही थी। पर आख़िर में मैंने कहा - बेटे, सावधानी से काम करना। तेरे काम में तुझे कामयाबी मिले। ... और फिर ...।

बहुत दूर से सुखा की आवाज़ आती रही ... बेबे … बेबे...।

मेरी चिता जल रही थी। सुखा बैठे-बैठे रो रहा था। जलती हुई चिता पर से मैं बोलना चाह रही थी ... मेरी देह तो जल जाएगी पर मेरी आत्मा हमेशा तेरे साथ रहेगी। बोलते-बोलते मेरी नींद खुली। जब मैं पूरी तरह जाग गई, तो तय किया कि मैं सुखा का ही साथ देती रहूँगी और उसी का भला सोचूँगी।

सुखा की ज़िन्दगी बड़ी दुःखी थी। जन्म से 3 महीने पहले ही उसके पिता स्वर्ग सिधार गए। उसका जन्म हुआ 15 मई 1907 को लुधियाना जिले के नौधरा गाँव में। उसके जन्म के बाद उसके पालन-पोषण के बारे में सोचना शुरू करने से पहले ही, उसके चाचा अचिंतराम जी और चाची मायादेवी के रूप में भगवान ही आकर हमें अपने घर ले गए।

पर देवर जी का एक पाँव जेल में होता तो दूसरा घर में। हर आन्दोलन में वे आगे रहते थे। एक बार तो सिर पर बहुत बड़ा घाव लेकर घर आए थे। मैंने सोचा, सुखा डर जाएगा, पर वह नहीं डरा। घर पर उसके चाचा जी के मित्रों की सभाएँ होती थी तो सुखा उनके साथ ही बैठा रहता। मैंने एक बार कहा - बेटे, बड़ों के बीच बच्चों को नहीं बैठना चाहिए। उस पर उसने कहा - वे लोग अपने देश से अंग्रेज़ों को भगाने वाले हैं। मैं तो उन्हीं के साथ बैठूँगा।

एक बार घर पर कोई बैठक होने वाली थी। हिन्दु, मुसलमान, सिख, सभी को सुखा ने देखा और चाचाजी ने उससे कहा - यहाँ कोई जात-पात आदि कुछ नहीं होती। असी सारे ही हिन्दुस्तानी हैंगे।

एक बार सुखा ने मुझसे कहा - मैं भी चाचाजी जैसा ही देश की सेवा करूँगा। सुन कर मैं तो रोने लगी। मैंने कहा - अपनी बेबे को शर्म आए, ऐसा कभी भी और कुछ भी काम मत करना। तू ही मेरा सहारा है। तेरे बिना कौन है मेरा इस दुनिया में?

शायद इसीलिए आख़िरी समय मुझसे मिलने आया था। कभी छिपते-छिपते साधु का वेष तो कभी किसान का वेष, तो कभी भिख़ारी का वेष बदल-बदल कर घर तक पहुँचा था।

सुखा जब छोटा था तो मेरे पास सोया हुआ था। एकाएक ज़ोर-ज़ोर से ठाँ-ठाँ बोलते हुए उठकर बैठ गया। वह नींद में बड़बड़ा रहा था। मैंने उसे जगाते हुए पूछा - की होया? तो उसने कहा - अंग्रेज़ों को बन्दूक से मार रहा था। मैंने जैसे-तैसे कर के उसे सुला दिया।

एक बार सुखा की फटी कमीज़ में लाल-नीले निशान दिखे। कमीज़ उतरवा कर उससे पूछा - किसने मारा?

हैडमास्टर जी ने। 

क्यों? क्या शरारत की थी?

‘मेरा देश’ निबंध लिखना था। मैंने लिखा - हमारी मातृभूति बहुत समृद्ध है। पर आज अंग्रेज सरकार की जुल्म-जबरदस्ती के कारण वह रो रही है। उसके आँसू पोंछना हम सबका कर्त्तव्य है। यह वाक्य पढ़ कर अध्यापक ने मेरी नोटबुक हैडमास्टर के सामने रखी। उन्होंने मुझे मारा और बोले - स्कूल बंद करवाना है क्या?

मेरी ओर देखते-देखते वह अपने चाचा जी के सामने खड़ा होकर पूछने लगा - चाचा जी, मैंने क्या ग़लत लिखा?

नहीं बेटे, तेरी बात तो बिल्कुल सही है।

आगे जाकर सुखा की भेंट भगत से हुई। दोनों के विचार बिल्कुल एक समान थे। फिर तो भगत सुखा की जान बन गया। उठते-बैठते, खाते-पीते हर वक्त भगत ... भगत ... भगत।

सुखा शुरू से ही निश्चयी था। जो दिमाग़ को बात जँच जाए, वह वही करेगा। आख़िरी समय मुझसे मिलने आया था, तब भगत ने और शिवराम ने साण्डर्स की हत्या कर दी थी। यह बात इसके सिवा और किसी को मालूम नहीं थी। मेरी मौत तो सामने दिख रही थी। तो उसकी चाची ने कहा - बेटे, दीदी का पूरा क्रियाकर्म करके जाना।

तो उसने कहा - फिर तो अब मेरा आना नहीं हो सकेगा। मुझे अपनी राह पर चलना है।

उसके चाचाजी ने कहा - दान-दक्षिणा कौन देगा?

‘चाचा जी, बेबे जिन्दा थी तो वह भी दूसरों के लिए। उसकी आत्मा किसी चीज़ में अटकेगी नहीं।’

उसके बाद अपने मित्रों से मिला तो उनसे कहा - अब कहीं भी रुकावट नहीं है। फाँसी पर भी चढ़ूँगा, तो मेरे लिए रोने वाला कोई नहीं है। अच्छा हुआ जो बेबे चली गई। नहीं तो बेबे रोती। इतना कहते-कहते वह बहुत रोया।

सुखा जब स्कूल में था तो अपने हाथ पर ओम और अपना नाम गुदवा लिया था। पर भूमिगत होने पर निशानदेही ख़तरनाक हो सकती है, इसलिए नाइट्रिक एसिड अपनी कलाई पर डाल दिया था। बहुत बड़ा घाव हो गया था। हाथ पर सूजन भी आ गई थी। बुखार भी आ गया। पर ऐसी हालत में भी मन शांत रख कर अपनी सहिष्णुता की परीक्षा लेने हेतु उसने कोई दवा नहीं ली थी। बाद में हल्के-हल्के निशान रह गए थे। इसलिए दुर्गाभाभी के यहाँ मोमबत्ती से पूरा चमड़ा जला लिया था।

अपनी ताकत आजमाने के लिए एक हट्टे-कट्टे आदमी की नाक पर जोर से मुक्का मारा और बाद में चुपचाप उसकी मार भी खा ली थी।

वैसे तो वह सीधे-सादे कपड़े पहनता था, शौक था तो सिर्फ़ अलाव में भुट्टे सेक कर वहीं बैठ कर खाने का।

सैण्ट्रल असैम्बली में बम डालने भगत को ही जाना चाहिए, ऐसी सुखा की एक निश्चित राय थी। भगत के स्थान पर दूसरा कोई बम डालने जाएगा, ऐसी बात भर ही इसने सुनी, तो इसने भगत को फटकारा और भगत को ही बम डालने के लिए विवश किया।

पर जब भगत गिरफ्तार हुआ, तो सुखा पूरी तरह ढह गया। वह बिल्कुल टूट गया था। भगत पर उसका इतना प्रेम, इतनी भक्ति थी कि लाहौर की जेल में भगत से मिल कर दिल्ली आए हुए एक डी.एस.पी. को ही सुखा ने गले लगा लिया। मैं माँ थी, पर इतना प्रेम तो सुखा ने मुझ पर भी नहीं किया होगा।

आख़िर एक दिन गुलाम रसूल नामक लुहार के कारण सुखा भी पकड़ा गया और साथ में जयगोपाल और किशोरीलाल भी पकड़े गए।

सुखा जब कारागृह में था तो क्रान्तिकारियों ने अन्न-सत्याग्रह किया था। तब सुखा को डॉक्टर जबरदस्ती दूध पिलाते पर सुखा गले में अंगुली डाल कर उगल देता। एक बार तो तबियत इतनी बिगड़ गई कि डॉक्टर घबरा गए। यदि वह कारागृह में दम तोड़ दे तो सारे राजबन्दी बौखला जाएँगे, इसलिए उसे जबरदस्ती पानी पिलाने की कोशिश की गई। 15 दिन तक उसने पानी नहीं पिया, उस हालत में भी वह दौड़ा और बेहोश हो कर गिर पड़ा। तब डॉक्टरों ने उसे पानी पिलाया।

मैंने उसकी अंतःप्रेरणा को कैसे जागृत किया होगा, नहीं मालूम, पर वह उठा। होश में आया, तो भगत और शिववर्मा उससे बहुत नाराज़ हो गए थे। पर वह बोला कुछ भी नहीं। अंग्रेज़ घबरा गए। उन्होंने क्रान्तिकारियों की माँग मंजूर कर ली और दूसरे ही दिल अन्न-सत्याग्रह समाप्त हो गया।

फिर 23 मार्च 1932 - भगत, सुखा और शिव वर्मा फाँसी के तख्त की ओर चले जा रहे थे। उन्होंने फाँसी के फंदे को अपने होठों से चूमा और अपने ही हाथों से अपने गले में डाल लिया। तो अंग्रेज़ अधिकारी भी अवाक् रह गए।

मैं तो पहले ही इस दुनिया से चली गई थी, मुक्त होकर इन तीनों बच्चों का स्वर्ग के द्वार पर स्वागत करने के लिए। तीनों को स्वर्ग के दरवाज़े पर ही मिलने के लिए। अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने के लिए जिन्होंने अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की, उन में मेरा लाडला 23 साल का बेटा - मेरा सुखा भी आ रहा है।

भगवान के सामने आँचल फैला कर एक ही भीख माँगती हूँ - मुझे हिन्दुस्तान में कहीं भी, किसी भी हालात में जन्म दे, पर हर जन्म में सुखा जैसे बेटों की ही माँ बना दे।

।।भारतमाता की जय।।

--

सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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