कटु सत्य
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कटु सत्य
Image by Pezibear from Pixabay
एक अंधेरी रात में एक काफिला एक रेगिस्तानी सराय में जाकर ठहरा। उस काफिले में सौ ऊंट थे। उन्होंने खूंटियां गाड़कर अपने ऊंट बांधे, किंतु अंत में पाया कि एक ऊंट अनबंधा रह गया है। उनकी एक खूंटी और रस्सी कहीं खो गई थी। अब आधी रात वे कहां खूंटी-रस्सी लेने जाएं?
काफिले के सरदार ने सराय मालिक को उठाया - “बहुत कृपा होगी यदि एक खूंटी और रस्सी हमें मिल जाती। हमारे 99 ऊंट बंध गए, एक रह गया - अंधेरी रात है, वह कहीं भटक सकता है।”
वृद्ध बोले - मेरे पास न तो रस्सी है, और न खूंटी, किंतु एक युक्ति है। जाओ, और खूंटी गाड़ने का नाटक करो, और ऊंट से कह दो - सो जाए।
सरदार बोले - अरे, यह कैसा पागलपन है?
वृद्ध बोले - बहुत नासमझ हो, ऐसी खूंटियां भी गाड़ी जा सकती हैं जो न हों, और ऐसी रस्सियां भी बांधी जा सकती हैं जिनका कोई अस्तित्व न हो। अंधेरी रात है, आदमी भी धोखा खा जाता है, ये तो एक ऊंट है।
विश्वास तो नहीं था किंतु विवशता थी। उन्होंने गड्ढा खोदा, खूंटी ठोकी - जो नहीं थी। केवल आवाज़ हुई ठोकने की, ऊंट बैठ गया। खूंटी ठोकी जा रही थी। रोज-रोज रात को उसकी खूंटी ठुकती थी, उस आवाज़ को वह पहचानता था। वह खूंटी ठोकने की आवाज़ सुन कर बैठ गया। उसके गले में उन्होंने हाथ डाल कर घुमाया, जैसे रस्सी बांधी जा रही हो। काल्पनिक रस्सी खूंटी से बांध दी गई - रस्सी, जो नहीं थी। ऊंट सो गया।
वे बहुत हैरान हुए। एक बहुत अद्भुत करामात उनके हाथ लग गई। वे सभी निश्चिन्त होकर सो गए। सुबह उठकर उन्होंने 99 ऊंटों की रस्सियां निकाली, खूंटियां निकाली - वे ऊंट खड़े हो गए। किंतु सौवां ऊंट बैठा ही रहा। उसको धक्के भी लगाए, पर वह नहीं उठा।
फिर वृद्ध से पूछा गया। वृद्ध बोले, “ऊंट हिंदुओं की भांति बहुत धार्मिक है। जो बात मन में बैठ जाती है, वह उसी पर कायम रहता है। जाओ, पहले खूंटी निकालो और उसकी रस्सी खोलो।” सरदार बोले, “लेकिन रस्सी हो तब न खोलूँ!”
वृद्ध बोले - “जैसा बांधने का नाटक किया था, वैसे ही खोलने का नाटक करो।”
ऐसा ही किया गया और ऊंट खड़ा हो गया। सरदार ने उस वृद्ध का धन्यवाद किया - “बहुत अद्भुत हैं आप, ऊंटों के बाबत आपकी जानकारी बहुत गहरी है।”
वृद्ध बोले, “यह सूत्र ऊंटों की जानकारी से नहीं, हिंदुओं की जानकारी से निकला है।”
वह हिंदू, जिसको अंग्रेजों ने जाने से पहले अंग्रेज़ी के खूंटे से बांध दिया था, आज भी वहीं बंधा है। वह आज भी अंग्रेजी भाषा और उनकी संस्कृति की गुलामी कर रहा है। उसे बार-बार बताने पर कि “तू अब स्वतंत्र हो गया है”, खड़ा नहीं हो रहा। सहस्र वर्षों की गुलामी की रस्सी गले में लटका कर घूम रहा है। जो उसे धक्के देकर उठाना चाह रहा है, उसे शत्रु मान रहा है। फिर से गुलाम होना चाह रहा है।
अब आप के सोचने और विचारने का समय आ गया है कि आप अपनी भाषा को समृद्ध बनाकर स्वतन्त्र रहना चाहते हैं या फिर से गुलाम होना चाहते हैं।
जय हिंद!
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
विनम्र निवेदन
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धन्यवाद।
बहुत ही सुंदर संदेश है।शीर्षक u tube may आता है वैशा होगा तब हर किसीको पढनैका
ReplyDeleteईनयजार रहेगा। आभार।
बहुत सुंदर
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