नेकी का फरिश्ता

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नेकी का फरिश्ता

Image by Gábor Adonyi from Pixabay

मैं कई दिनों से बेरोज़गार था। एक-एक रूपये की कीमत जैसे करोड़ों की लग रही थी। इस उठापटक में था कि कहीं नौकरी लग जाए।

आज एक इंटरव्यू था। पर दूसरे शहर जाने के लिए जेब में सिर्फ दस रूपये थे। मुझे कम से कम दो सौ रुपयों की जरूरत थी।

इंटरव्यू वाले अपने इकलौते कपड़े रात में धोकर, पड़ोसी की प्रेस माँग कर तैयार करके पहनकर, अपने योग्यताओं की मोटी फाइल बगल में दबाकर, दो बिस्कुट खा कर निकला।

कहीं लिफ्ट लेकर, कहीं पैदल चल कर जैसे-तैसे चिलचिलाती धूप में पसीने से तरबतर, बस! इस उम्मीद में स्टैण्ड पर पहुँचा कि शायद कोई पहचान वाला मिल जाए, जिससे सहायता लेकर इंटरव्यू के स्थान तक पहुँच सकूँ।

काफी देर खडे रहने के बाद भी कोई नहीं दिखा। मन में घबराहट और मायूसी थी। क्या करूँगा? अब कैसे पहुँचूंगा?

पास के मंदिर पर जा पहुंचा। दर्शन करके सीढ़ियों पर उदास बैठा था।

मेरे पास में ही एक फ़कीर बैठा था। उसके कटोरे में मेरी जेब और बैंक एकाउंट से भी ज्यादा पैसे पड़े थे!!!

मेरी नज़रें और हालात समझ कर वह बोला - “कुछ मदद चाहिए क्या?” मैं बनावटी मुस्कुराहट के साथ बोला - “आप क्या मदद करोगे?

“चाहो तो मेरे पूरे पैसे रख लो”, वह मुस्कुराता बोला। मैं चौंक गया!!! उसे कैसे पता मेरी ज़रूरत!

मैंने कहा, “क्यों ...?

“शायद आपको ज़रूरत है”, वह गंभीरता से बोला।

“हाँ है तो। पर तुम्हारा क्या? तुम तो दिन भर माँग कर कमाते हो?”, मैने उस का पक्ष रखते हुए कहा।

वह हँसता हुआ बोला - “मैं नहीं माँगता साहब! लोग डाल जाते हैं मेरे कटोरे में, पुण्य कमाने के लिए!!! मैं तो फकीर हूँ। मुझे इनका कोई मोह नहीं। मुझे सिर्फ भूख लगती है। वह भी एक टाइम और कुछ दवाइयाँ, बस! मैं तो खुद बाकी सारे पैसे मंदिर की पेटी में डाल देता हूँ।” वह सहज था कहते-कहते।

मैंने हैरानी से पूछा - “फिर यहाँ बैठते क्यों हो …?

“जरूरतमंदों की मदद करने!!!”, कहते हुए वह मंद-मंद मुस्कुरा रहा था।

मैं उसका मुँह देखता रह गया!!! उसने दो सौ रुपये मेरे हाथ पर रख दिए और बोला - “जब हो, तब लौटा देना।”

मैं उसका शुक्रिया जताता हुआ वहाँ से अपने गंतव्य तक पँहुचा। मेरा इंटरव्यू हुआ और सलेक्शन भी।

मैं खुशी-खुशी वापस आया। सोचा उस फकीर को धन्यवाद दे दूँ।

मैं मंदिर पहुँचा। बाहर सीढ़ियों पर भीड़ लगी थी। मैं भीड़ में घुस के अंदर पहुँचा। देखा, वही फकीर मरा पड़ा था।

मैं भौचक्का रह गया! मैने दूसरों से पूछा - यह कैसे हुआ?

पता चला कि वह किसी बीमारी से परेशान था। सिर्फ दवाईयों पर जिन्दा था। आज उसके पास दवाइयाँ नहीं थी और न उन्हें खरीदने के पैसे!!!

मैं अवाक् सा उस फकीर को देख रहा था! अपनी दवाईयों के पैसे वह मुझे दे गया था, जिन पैसों पर उसकी जिंदगी का दारोमदार था, उन पैसों से मेरी ज़िंदगी बना दी थी ...!

भीड़ में से कोई बोला - अच्छा हुआ मर गया। ये भिखारी भी साले बोझ होते हैं। कोई काम के नहीं ...!

मेरी आँखें डबडबा आयी!

वह भिखारी कहाँ था! वह तो मेरे लिए भगवान ही था … नेकी का फरिश्ता … मेरा भगवान!!!

भगवान कौन है? कहाँ है? किसने देखा है? बस! इसी तरह मिल जाते हैं!!!

--

सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

🙏🙏🙏


विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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