धारण करना ही धर्म है

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धारण करना ही धर्म है

Image by Manfred Richter from Pixabay

एक राजा ने घोषणा की, कि जो धर्म श्रेष्ठ होगा, मैं उसे स्वीकार करूँगा और आगे बढ़ाने में मदद दूँगा।

अब तो उसके पास अपने धर्म की श्रेष्ठता का गुण गाते एक से एक विद्वान् आने लगे, जो दूसरे धर्मों का दोष गिनाते और अपने धर्म की श्रेष्ठता बखानते। इससे यह तय न हो पाया कि आखिर वह धर्म कौन सा है, जिसे राजा अपनाये व प्रश्रय दे कर आगे बढ़ाये।

अनिर्णय की इस स्थिति से राजा बेहद दुःखी हुआ और अधर्म में ही जीता रहा; लेकिन उसने अपनी खोज ख़त्म नहीं की। वह अन्वेषण में जुटा रहा।

इसी तरह प्रतीक्षा में वर्षों बीत गये और राजा बूढ़ा होने लगा। अधर्म का जीवन उसे पीड़ा, मनस्ताप देता रहा।

आखिर एक प्रसिद्ध फ़क़ीर से उसने समस्या का हल पूछा और कहा - मैं सर्वश्रेष्ठ धर्म की खोज में हूँ, पर मुझे वह नहीं मिल रहा। आप ही कुछ मार्गदर्शन करें और सुझायें।

फ़क़ीर ने माथे पर बल डाल कर अचंभे से पूछा - सर्वश्रेष्ठ धर्म? क्या संसार में बहुत से धर्म होते हैं, जो श्रेष्ठ या अश्रेष्ठ की बात उठे? धर्म तो एक ही है, अहंकार बेशक़ अनेक हो सकते हैं, पर धर्म तो वही होता है, जिसे धारण किया जाये। जहाँ व्यक्ति बिल्कुल निष्पक्ष होता है; क्योंकि पक्षपाती मन में धर्म हर्गिज़ नहीं हो सकता, वहाँ तो अहंकार का आग्रह होगा।

राजा ने फ़क़ीर की बातों से प्रभावित हो पूछा, तो मैं फिर क्या करूँ? आप ही कुछ उपयुक्त मार्ग सुझायें।

फ़क़ीर नदी की दिशा में जा रहा था, सो बोला - आओ, नदी किनारे चलते हैं। वहीं आराम से समस्या सुलझायेंगे।

नदी पर पहुँच कर फ़क़ीर बोला - परले पार जाने के लिये किसी सर्वश्रेष्ठ नाव का प्रबंध करो। पर देखना, नाव हर तरह से मुक़म्मल और दिखने में सुंदर होनी चाहिए।

तुरंत एक से बढ़कर एक सुंदर नौकाएँ लायी गयी, पर फ़क़ीर उन सबमें कुछ न कुछ कमी बता उन्हें रद्द कर देता।

ऐसे सुबह से शाम हो गयी और फ़क़ीर को कोई नाव ही न जँचे। इससे तंग आ भूखा-प्यासा राजा बेतरह चिढ़ गया और तुनकते हुए बोला - इनमें कोई भी नाव हमें आसानी से नदी पार करवा देगी। यदि फिर भी नाव पसंद नहीं तो हम ख़ुद भी तो तैरकर नदी पार कर सकते हैं! इसमें मुश्किल क्या है? छोटी-सी तो नदी है। पार करने में कितनी देर लगेगी?

फ़क़ीर खिलखिलाकर हँस दिया। बोला - यही तो मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता था।

भला धर्म की भी कोई नाव होती है? वह हदों में नहीं बँधता। धर्म की नदी ख़ुद तैरकर पार करनी होती है, स्वयं अपने उद्यम से। कोई किसी दूसरे को बिठाकर पार नहीं करा सकता।

राजा को मुद्दे की बात समझ आ गयी कि धर्म के नियमों और उसके तत्वों को धारण करना ही धर्म है।

दिमाग़ी कसरत में जुटे लोग आज धर्म की बखिया उधेड़ने में लगे हैं और उसी सहारे पार होना चाहते हैं, जबकि धर्म की मान्य संहिता को आचरण में लाये बिना, उसके उसूलों को अमली जामा पहनाये बिना, सिवा मौखिक ज़बानदराजी या कसरत के, किसी महत्त्व के मुकाम तक नहीं पहुँच सकते; क्योंकि जब तक व्यावहारिक रूप से धर्म के तथ्यों को धारण न किया जाये, तब तक सदाचरण के अभाव में, केवल बुद्धिविलास के वाचिक बल पर हर्गिज़ कुछ हासिल नहीं किया जा सकता।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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