मेहनत की रोटी
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मेहनत की रोटी
Image by Stefan Schweihofer from Pixabay
प्राचीन काल में देवदत्त नाम का एक चोर रहता था। वह छोटी-मोटी चोरियां कर अपना भरण-पोषण करता था। एक बार जब वह एक सेठ के घर चोरी करने गया तो सिपाहियों ने उसे घेर लिया। उसके कई साथी पकड़ लिए गए। वह जान बचाकर भाग निकला। सिपाही उसके पीछे पड़े हुए थे।
अपनी जान बचाने के लिए वह एक आश्रम में जा छुपा। जब सिपाही चले गए तो वह आश्रम के स्वामी के पास गया और उनसे अपनी शरण में लेने की विनती की। यद्यपि स्वामी जी उसकी असलियत से परिचित हो चुके थे, किंतु उन्होंने उसे यह सोचकर आश्रम में रहने की अनुमति दे दी कि शायद सुसंगति से वह सुधर जाए।
देवदत्त तपस्वियों के वेष में आश्रम में रहने लगा। वह दुराचारी व्यक्ति था। सुसंगति के बावजूद उसके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया। आश्रम के स्वामी जी के पास एक सोने की कुल्हाड़ी थी, जिसे आत्मरक्षा के लिए वे सदैव अपने पास रखते थे। वह सोने की कुल्हाड़ी देवदत्त की नज़रों में चढ़ चुकी थी। देवदत्त किसी प्रकार कुल्हाड़ी को चुराना चाहता था।
आख़िरकार एक दिन उसे मौका मिल गया। जब स्वामी जी सो रहे थे तो देवदत्त ने उस कुल्हाड़ी को चुरा लिया। देवदत्त ने वह कुल्हाड़ी एक थैले में छुपा ली। उसी रात वह आश्रम से चुपचाप निकल गया।
अगले दिन प्रातः देवदत्त आश्रम से बहुत दूर जा चुका था। देवदत्त ने सोचा कि वह सोने की कुल्हाड़ी को किसी स्वर्णकार के यहां बेच दे, जिससे उसे धन की प्राप्ति हो सके। यह सोचकर देवदत्त एक स्वर्णकार के पास पहुंचा और सोने की कुल्हाड़ी का सौदा तय करने लगा। स्वर्णकार ने सोने की कुल्हाड़ी दिखाने को कहा। देवदत्त ने जैसे ही कुल्हाड़ी को निकाला उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
सोने की कुल्हाड़ी की जगह उसके थैले से लोहे की कुल्हाड़ी निकली। यह देख देवदत्त के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि एक रात में इतना परिवर्तन कैसे हो सकता है। स्वर्णकार ने जब लोहे की कुल्हाड़ी देखी तो देवदत्त को फटकारते हुए अपनी दुकान से निकाल दिया। देवदत्त को स्वर्णकार के ऊपर गुस्सा आ रहा था। साथ-साथ उसे इस बात का आश्चर्य भी हो रहा था कि सोने की कुल्हाड़ी लोहे की कुल्हाड़ी में कैसे परिवर्तित हो गई?
देवदत्त लोहे की कुल्हाड़ी लिए भटकता रहा, किंतु उसे उसका कोई ग्राहक नहीं मिला। थक-हार कर वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर आराम करने लगा। उसे इस बात की चिंता थी कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे कर पाएगा और इस बात का दुःख भी था कि उसने स्वामी जी को धोखा देकर कल्हाड़ी चुराई क्यों? उसे लगा कि जैसे उसे उसकी करनी का फल मिल गया हो। वह भूख और प्यास से व्याकुल हो रहा था।
वह उदास मन से बैठा ही था कि अचानक उसकी नज़र सामने वन में कार्य कर रहे मज़दूरों पर गई। वे लकड़ियां काट रहे थे। देवदत्त के दिमाग में विचार आया कि क्यों न वह भी रोजी-रोटी के लिए कुछ काम ही करे। इसके अलावा उसे कोई दूसरा विकल्प नजर नहीं आ रहा था। पेट की आग बुझाने के लिए कुछ न कछ तो करना ही था। अतः मन में निश्चय कर वह ठेकेदार के पास जा पहुँचा और उससे काम देने का आग्रह किया। ठेकेदार ने उसे लकड़ी काटने का काम दे दिया, जिसे उसने हंसी-खुशी स्वीकार कर लिया। उसके पास कुल्हाड़ी तो थी ही, अतः वह अविलंब अपनी कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने चल पड़ा।
उस दिन देवदत्त ने खूब मेहनत की। ठेकेदार उसके काम से बहुत प्रसन्न हुआ और उसे पारिश्रमिक के रूप में कुछ स्वर्ण मुद्राएं दी। साथ ही अगले दिन भी आने को कहा। देवदत्त स्वर्ण मुद्राएं पाकर अति प्रसन्न हुआ। वह उन मुद्राओं से बाजार से आवश्यक वस्तुएं खरीद लाया। शाम को देवदत्त ने अपने हाथों से भोजन तैयार किया। रोटियां देवदत्त को आज कुछ ज्यादा ही मीठी लग रही थी, क्योंकि वे मेहनत की रोटियां थी।
उसे ज्ञात हो चुका था कि जो वस्तु मेहनत से प्राप्त होती है वह आत्मा को कितना सकून व आनंद प्रदान करती है। उन रोटियों का स्वाद देवदत्त को इतना अच्छा लगा कि उसने मेहनत की रोटी ही कमाने का निश्चय कर लिया।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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