ज्ञान का वरदान
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ज्ञान का वरदान
Image by Jessica Joh from Pixabay
एक आत्म-पिपासु गुरु के चरणों में गया। उसने गुरु के सामने अज्ञानता का, अपने पापों का चिट्ठा खोला और अपनी विगत भूलों का प्रायश्चित और ज्ञान का वरदान मांगा। गुरु ने कहा, “मैं कौन होता हूँ तुम्हें क्षमा करने वाला? वैसे भी यदि मैं तुम्हें क्षमा भी कर दूं तो उससे क्या होगा? असली क्षमा तो तुम्हें अपने आप से मांगनी पड़ेगी। स्वयं के दर्पण के सामने चित्त को पूर्णतया टटोलना पड़ेगा, तभी ज्ञान की प्राप्ति होगी।”
आत्म-पिपासु ने कहा, “मैंने आपको अपना गुरु माना है। हृदय के आसन पर आप का प्रतिबिंब स्थापित कर लिया है। अब आप ही मेरा मार्गदर्शन करें। मुझे आज्ञा दें कि अब मुझे क्या करना है।”
संत ने कहा, “जाओ! ध्यान-सामायिक में स्थित होकर अपने एक-एक पाप का स्मरण करो और उन्हें चित्त से बाहर निकालो। तुम्हारा चित्त शुद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाएगा।”
वह 6 माह तक आहार-पानी का त्याग करके आत्म-मल को ध्यान-नीर से धोता रहा। एक दिन वह सिद्धि को उपलब्ध हो गया। एक देवता स्वर्ग से आया और उससे कहा, “आप जो भी वरदान मांगना चाहें, मांग लें। परमात्मा आप पर अति प्रसन्न है।”
साधु ने कहा, “जाओ! रास्ता पकड़ो अपना। जब मन में मांग थी, तब तुम कहां थे? अब मांग नहीं रही, तो तुम आए हो। अब तुम्हारा आना व्यर्थ है। भागो यहां से! फिजूल में मेरा और अपना समय ख़राब मत करो।”
देवता बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, “मैं बहुत से लोगों के पास गया हूँ लेकिन इस तरह का व्यवहार तो कहीं नहीं किया गया। क्या मैंने तुम्हारा अपमान कर दिया है?”
संत ने कहा, “यह अपमान नहीं तो और क्या है? तुमने मुझे भिखमंगा समझ रखा है क्या? अब तो मुझे मालिकों का मालिक, शहंशाहों का शहंशाह मिल गया है। तुम अब क्यों आए हो यहां? तुम क्या दे सकते हो? देने योग्य क्या है तुम्हारे पास? और जो तुम देना चाहोगे, उसकी मुझे ज़रूरत नहीं रही।”
उस देवता ने कहा, “परमात्मा ने ही मुझे भेजा है और आपके इस तरह लौटाने में तो भगवान का अपमान होगा। कुछ तो मांग लो। कोई ऐसी चीज मांग लो जिसकी तुम्हें तो चाहे ज़रूरत न हो लेकिन औरों को ज़रूरत हो।”
संत ने कहा, “नहीं! मुझे ऐसी किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है।” स्वयं देवता ने सुझाव देते हुए कहा, “ऐसा क्यों नहीं मांग लेते कि बीमार को स्पर्श करो तो बीमार ठीक हो जाए, अंधे की आंख पर हाथ रखो तो अंधे को आँखें मिल जाएँ, मुर्दे को स्पर्श करो तो वह जीवित हो जाए। इससे लोगों की सेवा हो जाएगी। तुम्हारे भीतर करुणा का जन्म होगा और लोगों में धर्म का सद्भाव जगेगा। परमात्मा की प्रीति उमड़ेगी।”
संत ने कहा, “यह बात तो ठीक लगती है लेकिन इससे एक ख़तरा है। इससे मुझमें अहंकार जन्म ले सकता है। मैं किसी अंधे को छू लूँ और वह ठीक हो जाए तो मेरे भीतर अभिमान पैदा होगा कि अहा! देखो, मैंने इसकी आंखें ठीक कर दी। मुर्दे को जिला दिया तो फिर मेरे भीतर मेरा अहंकार कहेगा कि देखा! है कोई और, जो मुर्दे को जिला दे।”
जब देवता माना ही नहीं तो संत ने कहा, “फिर तुम मेरी छाया को वरदान दे दो। मैं तो वरदान नहीं चाहता लेकिन मेरी छाया जिस किसी पर भी पड़ जाए तो उसका कल्याण हो जाए। रोगी निरोगी हो जाए, मुर्दा जीवित हो जाए, भिखारी धनपति हो जाए। लेकिन एक शर्त है कि मुझे पता नहीं चलना चाहिए। मेरी छाया अगर सूखे वृक्ष पर पड़ जाए तो वह हरा हो जाए लेकिन मुझे बिल्कुल भी ज्ञात नहीं होना चाहिए।”
देवता संत को वरदान देकर चला गया। अनेक सूखे वृक्ष हरे-भरे हो गए, अनेक दुःखी, सुखी हो गए। वह संत सबके लिए वरदान सिद्ध हुआ। वह जहां से भी गुज़रता, मधुमास छा जाता। संत को पता ही नहीं चलता और लोगों को उसकी तपस्या का लाभ मिल जाता।
सत्य ही है कि संतो को रिद्धि-सिद्धि से क्या लेना देना? वे उससे कोसों दूर भागते हैं। स्वप्न में भी उसकी इच्छा नहीं करते।
कवि ‘पलटू’ कहते हैं -
रिद्धि सिद्धि से बैर, संत दुरियाते।
इंद्रासन बैकुंठ, तृण सम जानते।।
संतों को चाहे इंद्रासन दो या स्वर्ग दो, ये सब उनके लिए तिनके से ज़्यादा नहीं है। वीतरागी संतों के द्वार पर ऋद्धि-सिद्धि भी आए तो वे उन्हें भी ठुकरा देते हैं। संतों का, वीतरागी मुनियों का तो सारा उपयोग बस ध्यान-सामायिक व आत्मा के साक्षात्कार में लगा रहता है।
ऐसे त्यागी संतो के चरणों में ही बोधि-समाधि प्राप्त हो सकती है। जो बीज की भांति अपने को धरती में समर्पित करने को तैयार हो, उसको ही ज्ञान का वरदान मिलता है।
सुविचार - जिस व्यक्ति की अपने इष्ट व आराध्य प्रभु में जितनी गहरी श्रद्धा व आस्था होती है, उसका आत्मविश्वास भी उतना ही सुदृढ़ होता है।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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धन्यवाद।
Very true & nice guidance is hidden behind this quote. Thank you, Madam ( divine - soul).
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