यह सफ़र बहुत छोटा है
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यह सफ़र बहुत छोटा है
Image by Michael Kauer from Pixabay
एक बार एक युवा बहन बस में यात्रा कर रही थी। तभी एक बस स्टॉप से एक तुनक-मिजाज महिला चढ़ी। उसके दोनों हाथ सामान से लदे थे। वह बहुत अशिष्टता से उस बहन के साथ वाली सीट पर आकर बैठी। कुछ इस तरह कि उसने अपने सामान का बहुत सा बोझ उस बहन के हाथ और पांव पर डाल दिया। पर वह बहन इस व्यवहार पर कुछ नहीं बोली। कोई प्रतिक्रिया नहीं की, किन्तु पीछे की सीट पर बैठे एक व्यक्ति को उस महिला के असभ्य व्यवहार पर बहुत गुस्सा आया। उसने बहन को उकसाया - ‘आप कुछ कहती क्यों नहीं इनको? यह भी कोई बैठने का तरीक़ा है? अपना बोझ सहयात्री पर धर दो।’
शालीन युवती बहन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया - ‘भाई साहब! मैं अभी अगले स्टैंड पर उतर जाऊंगी। इस छोटे से सफ़र में मैं इनसे क्यों कहा-सुनी करूं? अभी चंद पलों में मैं अपने रास्ते और ये अपने रास्ते चली जाएंगी। फ़िर थोड़ी-सी दूरी और छोटी-सी बात के लिए मैं इनसे क्यों लडाई-झगड़ा करूं? सफ़र ख़त्म हो जाएगा, पर लडाई-झगड़ा हमेशा याद रहेगा। उसका असर मेरे काम-काज पर पड़ेगा और मैं अपना आज का काम भी सही ढंग से नहीं कर पाऊँगी। लाभ छोड़ कर हानि वाला सौदा कोई करता है क्या?
घटना बहुत साधारण सी है। आपके और हमारे साथ आए दिन घटती रहती है। पर गहराई से आकलन करें तो यह हमारे ग्रंथों के महान् सूत्र से कम नहीं।
जीवन के सफ़र में तरह-तरह के आकार-प्रकार, विचार और व्यवहार वाले सहयात्रियों और परिवारजनों से हमारी भेंट होती है। कभी वे अपना कन्धा हमारे कंधे से टकरा कर बैठते हैं, यानी हमसे मतभेद रखते हैं, कभी अपना बोझ चाहे-अनचाहे हम पर लाद देते हैं, यानी अपनी मुश्किलों और मुसीबतों के घेरे में हमें खींच लेते हैं। ऐसे में हम गुस्सा हो जाते हैं और प्रतिक्रियाएँ करने लगते हैं। परंतु उस बहन की भांति हमें भी शास्त्रों में कहे गये इस सूत्र को स्मरण रखना चाहिए -
दुर्लभो मानुषो देहो क्षणभंगुरः
अर्थात् मनुष्य जीवन का सफ़र दुर्लभ भी है और क्षणभंगुर भी है। न जाने कौन सी सवारी कब नीचे उतर जाए, कुछ पता नहीं। फ़िर इस क्षणिक-सी ज़िन्दगी में अपने सहयात्रियों से वाद-विवाद में क्या उलझना! क्यों किसी का दिल दुखाना! क्यों किसी को अपमानित करना? क्योंकि अंततः वह कर्म, संस्कारों का निर्माण करता है। मुश्किलों-मुसीबतों का बोझ, है तो उस सहयात्री का ही न! एक दिन हमें अपने और उसे अपने इस कर्मों के बोझे के साथ अपने-अपने रास्ते चले जाना होगा। कोई किसी पर तिल्ली भर बोझ नहीं छोड़ पाएगा।
इसलिए क्यों न अपने इस दुर्लभ सफ़र का धैर्य के साथ आनंद लें!
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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धन्यवाद।
सही मे इस दुर्लभ सफर का धर्य के साथ आनंद ले ! यही सही सिख मुलगी है,.... ओम शांती
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