सेवाभाव और संस्कार

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सेवाभाव और संस्कार

Image by Nimrod Oren from Pixabay

एक संत ने एक विश्वविद्यालय का आरंभ किया। इस विद्यालय का प्रमुख उद्देश्य था - ऐसे संस्कारी युवक-युवतियों के चरित्र का निर्माण करना, जो समाज के विकास में सहभागी बन सकें।

एक दिन उन्होंने अपने विद्यालय में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसका विषय था - “जीवों पर दया एवं प्राणी मात्र की सेवा।”

निर्धारित तिथि को तयशुदा वक्त पर विद्यालय के कॉन्फ्रेंस हॉल में प्रतियोगिता आरंभ हुई।

किसी छात्र ने सेवा के लिए संसाधनों की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि हम दूसरों की तभी सेवा कर सकते हैं, जब हमारे पास उसके लिए पर्याप्त संसाधन हों।

वहीं कुछ छात्रों की यह भी राय थी कि सेवा के लिए संसाधन नहीं, भावना का होना ज़रूरी है।

किसी ने कहा कि तन में शक्ति, मन में लगन और जेब में धन हो, तभी हम “जीवों पर दया एवं प्राणीमात्र की सेवा” कर सकते हैं, इनमें से एक का भी अभाव होने से यह कार्य सम्भव नहीं है।

इस तरह तमाम प्रतिभागियों ने प्राणी सेवा के विषय में शानदार भाषण दिए।

आखिर में जब पुरस्कार देने का समय आया तो संत ने एक ऐसे विद्यार्थी को चुना, जो मंच पर बोलने के लिए ही नहीं आया था।

यह देखकर अन्य विद्यार्थियों और कुछ शैक्षिक सदस्यों में रोष के स्वर उठने लगे।

संत सबको शांत कराते हुए बोले - “प्यारे मित्रों व विद्यार्थियों! आप सबको शिकायत है कि मैंने ऐसे विद्यार्थी को क्यों चुना, जो प्रतियोगिता में सम्मिलित ही नहीं हुआ था?

दरअसल, मैं जानना चाहता था कि हमारे विद्यार्थियों में कौन सेवाभाव को सबसे बेहतर ढंग से समझता है। इसीलिए मैंने प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर एक घायल बिल्ली को रख दिया था। आप सब उसी द्वार से अंदर आए, पर किसी ने भी उस बिल्ली की ओर आँख उठाकर नहीं देखा। यह अकेला प्रतिभागी था, जिसने वहां रुक कर उसका उपचार किया और उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ कर आया।

सेवा-सहायता डिबेट का विषय नहीं, यह तो जीवन जीने की कला है। जो अपने आचरण से शिक्षा देने का साहस न रखता हो, उसके वक्तव्य कितने भी प्रभावी क्यों न हों, वह पुरस्कार पाने के योग्य नहीं है।”

संत की बात सुन कर सबको बोध हुआ कि मन में सेवाभाव का जज्बा हो, तो तन में भी शक्ति आ जाती है और थोड़े धन का उपयोग करके भी हम बड़ी सेवा कर सकते हैं।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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