अनासक्ति का सिद्धान्त (भाग - 13)

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अनासक्ति का सिद्धान्त (भाग - 13)

द्वारा - श्री शुद्धात्म प्रकाश भारिल्ल

Law of Detachment by Sh. S. P. Bharill

Image by HeungSoon from Pixabay

पिछले प्रकरण में हमने जाना कि जिस वस्तु का संयोग होता है, उसका एक न एक दिन वियोग अवश्य होता है।

क्या आप बता सकते हैं कि पिछले 6 महीने में ऐसी कौन-कौन सी घटनाएं हुई जिनके कारण आप दुःखी हुए हो। यदि आप ध्यान से सोचेंगे तो आपको पता चलेगा कि यह सारा दुःख हमारी Attachment के कारण ही था। वास्तव में दुःख के दो ही कारण होते हैं - या तो इष्ट वस्तु का वियोग हुआ या अनिष्ट वस्तु का संयोग हुआ। जिसे हम चाहते थे, वह हमसे बिछड़ गई या जिसे हम नहीं चाहते थे, उसके साथ हमें रहना पड़ा। दोनों ही कारण आपकी Attachment यानी आसक्ति का परिणाम था। क्या उनका वियोग या संयोग कोई अनहोनी घटना थी? या ऐसा होना ही था। यदि जड़ पदार्थ से Attachment हुई तो उसका वियोग निश्चित था क्योंकि वह अनादि से अनंत काल तक साथ रहने वाले थे ही नहीं। यह तो त्रिकाल में भी संभव नहीं था। मेरे ज्ञान में तो यह होना चाहिए कि मैं Attachment केवल उनके साथ ही रखूँगा जो अनादि काल से मेरा है और अनंत काल तक मेरा ही रहेगा। रुपया-पैसा, धन-दौलत तो कभी भी अनादि से अनंत तक रहने वाले नहीं हैं। मकान भी इस जन्म में हमें मिला है तो वह भी हमेशा साथ रहने वाला नहीं है। या तो मुझे उस मकान को छोड़कर जाना पड़ेगा या अंत समय में वह मकान ही मुझे छोड़ देगा।

हम कह सकते हैं कि शरीर तो जन्म के समय से हमारे साथ आया था। वह तो मेरा ही है न! लेकिन वह भी केवल जन्म से मरण तक ही साथ रहेगा। वह इसी जन्म में हमें मिला है और इसी जन्म में हमसे छूट जाएगा। अनादि काल से अनंत काल तक तो वह शरीर भी हमारे साथ नहीं रहेगा न! मुझे केवल अपनी आत्मा से Attachment रखनी है जो अनादि काल से मेरे साथ थी और अनंत काल तक मेरे साथ रहेगी। किसी Temporary वस्तु से Attachment नहीं रखनी है। बेटे-बेटी भी उनके विवाह होने से पहले तक हमारे साथ हैं। उसके बाद उनकी अपनी, स्वयं की Family बन जाएगी और वे हमसे Detached हो जाएँगे। हम अपने शरीर के जन्म को अपना जन्म मान लेते हैं और शरीर के मरण को अपनी मृत्यु मान लेते हैं।

कहा गया है - तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान।

हम तो अपने कपड़ों से भी इतने Attached हैं कि ज़रा-सा अच्छा कपड़ा पहनते ही हमारी चाल बदल जाती है। हम स्वयं को बहुत भाग्यशाली समझने लगते हैं। लेकिन हम स्वयं को तब भाग्यशाली समझें, जब आज हम धर्म सभा में बैठे हैं और हमें इस सभा में बैठ कर इतनी तत्व की बातें सुनने को मिल रही हैं।

पहले हमने बात की थी कि सुख पाने के लिए हमें अपने भावों से भी Detached होना पड़ेगा। मन में कोई एक विकल्प उठता है तो हमारे दिमाग में उस विकल्प का मायाजाल बन जाता है। हम एक विकल्प में ही इतने उलझ जाते हैं कि उससे बाहर नहीं आ पाते। हमें उन भावों से भी Detached होना पड़ेगा। अपने भावों से Detached होने पर ही जीवन में साक्षी भाव आएगा। जो दुनिया में हो रहा है, उसे होने दो।

मान लो हम कोई Horror Movie देखने जाते हैं तो अपने खून-पसीने की कमाई खर्च करके क्या डरने के लिए जाते हैं? या Disneyland (डिज्नीलैंड) में झूले पर बैठते हैं तो क्या हमें डर नहीं लगता? वे इतने Dangerous होते हैं कि लोग चिल्लाने लगते हैं। क्या इतने पैसे डरने के लिए देते हैं लोग? और लौटकर आते हैं तो कहते हैं कि मज़ा आ गया।

जब हम वही Horror Movie दूसरी बार देखने जाते हैं तो क्या हम उतना ही डरते हैं जितना पहली बार डरे थे? हम पहली बार तो डर कर एक-दूसरे का हाथ पकड़ लेते हैं या कुर्सी को कसकर पकड़ लेते हैं, लेकिन दूसरी बार हमें डर नहीं लगता। क्योंकि दूसरी बार हमें पता होता है कि आगे क्या होने वाला है। जब बगल में बैठा व्यक्ति डरता है तो हमें उस पर हंसी आती है कि देखो तो! बिना बात ही डर रहा है। अरे! कुछ नहीं होने वाला। देखना, अभी यह बच कर निकल जाएगा। साथ वाले को भी समझाते हैं कि डरो मत, कुछ नहीं होगा। वह इसे मारेगा नहीं।

पहली बार में डर लगा किस चीज का? डरावनी चीज का! नहीं!! अज्ञान का। जब ज्ञान में बात आ गई कि यह जो भूतनी दिखाई दे रही है लाल आंखों वाली, यह किसी को नहीं खाएगी। यह तो एक शरीफ लड़की है, जो केवल भूतनी का रोल अदा कर रही है। End में सबको पता चल जाएगा कि यह लड़की तो पुलिस वाले को सबक सिखाने के लिए ही यह नाटक कर रही है।

किस चीज का डर था वह? केवल अज्ञान का डर था और कुछ नहीं। दूसरी बार जब हमने वह Movie देखी, तो हमें ज्ञान हो गया था। हम सहजता और सरलता से साक्षी भाव से वह Movie देखते रहे। यह सहजता और साक्षी भाव इसलिए हुआ कि हमें आगे की घटनाओं का ज्ञान हो गया था। मुझे अगर अपने जीवन में यह श्रद्धा हो जाए कि जो होना है, वही होता है। जो पिछली बार Movie में हुआ था, वही इस बार भी होगा। अनहोनी कुछ नहीं होती।

पर-पदार्थ मेरे नहीं हैं, इसलिए मुझे इनके प्रति कोई आसक्ति नहीं है। हमें केवल भगवान पर श्रद्धा रखनी आवश्यक है क्योंकि केवली भगवान के ज्ञान में तो सब कुछ झलक रहा है। अगली बात का ज्ञान होना उतना आवश्यक नहीं है, जितना केवली भगवान पर श्रद्धा होना आवश्यक है। इससे विचारों की शृंखला में सहजता और साक्षी भाव आ जाएगा। अज्ञानता खत्म हो जाएगी। इष्ट वस्तु का वियोग न हो जाए, इसलिए हम डरते हैं और अनिष्ट का संयोग न हो जाए इसलिए भी हम डरते हैं। लेकिन होगा तो वही जो होना है। क्या मैं जीवन में केवल दर्शक बनकर नहीं रह सकता? जो हो रहा है, बस उसे सहजता से देखता रहूँ। हमारी असहजता का क्या कारण है?

असहजता का कारण है - कर्तृत्व का बोध। हम हर कार्य को कर्तापन की दृष्टि से देखते हैं। यदि केवल ज्ञाता दृष्टा बनकर जीवन जीएँ, तो यह जीवन ही हमारे मनोरंजन का साधन बन जाएगा।

क्रमशः

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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विनम्र निवेदन

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