घर की बुनियाद

👼👼💧💧👼💧💧👼👼

घर की बुनियाद

Image by Johann Reinbacher from Pixabay

कुछ ऐसी ही बहुएँ घर की बुनियाद होती हैं।

पिछले साल गर्मियों की छुट्टियों में 15 दिन के लिए मायके जाने के लिए पड़ोस में रहने वाला रवि अपनी पत्नी अमिता और दोनों बच्चों को रेलवे स्टेशन छोड़ने गया, तो मैडम जी ने सख्त हिदायत दी - माँजी-बाबूजी का ठीक से ध्यान रखना और समय-समय पर उन्हें दवाई और खाना खाने को कहियेगा।

हाँ! हाँ! ठीक है। जाओ, तुम आराम से। 15 दिन क्या, एक महीने बाद आना। माँ-बाबूजी और मैं, तीनों मज़े से रहेंगे और रही उनके ख्याल की बात तो मैं भी आखिर बेटा हूँ उनका - रवि ने बड़ी अकड़ में कहा।

अमिता मुस्कुराते हुए ट्रेन में बैठ गई।

कुछ देर में ही ट्रेन चल दी।

उन्हें छोड़कर घर लौटते वक्त सुबह के 08.10 ही हुए थे तो रवि ने सोचा बाहर से ही कचौरी-समोसा ले चलूं ताकि माँ को नाश्ता न बनाना पड़े।

घर पहुंचा तो माँ ने कहा -

तुझे नहीं पता क्या? हमने तला-भुना खाना पिछले आठ महीनों से बंद कर दिया है। वैसे तुझे पता भी कैसे होगा? तू कौन-सा घर में रहता है।

आखिरकार दोनों ने फिर दूध ब्रेड का ही नाश्ता कर लिया।

नाश्ते के बाद रवि ने दवाई का डिब्बा उनके सामने रख दिया और दवा लेने को कहा तो माँ बोली, “हमें क्या पता कौन सी दवा लेनी है? रोज तो बहू रानी ही निकालकर देती है।”

रवि ने अमिता को फोन लगाकर दवाई पूछी और उन्हें निकालकर खिलाई।

इसी तरह अमिता के जाने के बाद रवि को उसे अनगिनत बार फोन लगाना पड़ा -

कौन सी चीज कहाँ रखी है?

माँ-बाबूजी को क्या पसन्द है क्या नहीं?

कब कौन सी दवाई देनी है?

रोज माँ-बाबूजी को बहू-बच्चों से दिन में 2 या 3 बार बात करवाना।

गिन-गिन कर दिन काट रहे थे दोनों।

सच कहूँ तो माँ-बाबूजी के चेहरे मुरझा गए थे, जैसे उनके बुढ़ापे की लाठी किसी ने छीन ली हो।

बात-बात पर झुंझलाना और चिड़-चिड़ापन बढ़ गया था उनका।

रवि अपने आप को बेबस महसूस करने लगा।

रवि से उन दोनों का अकेलापन देखा नहीं जा रहा था।

आखिरकार रवि को सारी अकड़ और एक बेटा होने के अहम को ताक पर रखकर एक सप्ताह बाद ही अमिता को फोन करके बुलाना पड़ा।

और जब अमिता और बच्चे वापस घर आये तो दोनों के चेहरे की मुस्कुराहट और खुशी देखने लायक थी, जैसे पतझड़ के बाद किसी सूख चुके वृक्ष की शाख पर हरी पत्तियां खिल चुकी हों।

और ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर उनके परिवार को अपने कर्मों से रोशन करने वाली उनकी अमिता जो आ गई थी।

रवि को भी इन दिनों में एक बात बखूबी समझ आ गई थी और वो यह कि - वृद्ध माता-पिता के बुढ़ापे में असली सहारा एक अच्छी बहू ही होती है, न कि बेटा

--

 सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

🙏🙏🙏


विनम्र निवेदन

यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें।

धन्यवाद।

Comments

Popular posts from this blog

अगली यात्रा - प्रेरक प्रसंग

Y for Yourself

आज की मंथरा

आज का जीवन -मंत्र

बुजुर्गों की सेवा की जीते जी

स्त्री के अपमान का दंड

आपस की फूट, जगत की लूट

वाणी हमारे व्यक्तित्व का दर्पण है

मीठी वाणी - सुखी जीवन का आधार

वाणी बने न बाण