किसका घर?
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किसका घर?
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किसका घर? माता-पिता का या बेटे का?
“पापा नया घर बिल्कुल तैयार हो चुका है। सोच रहा हूँ कि वहाँ दीपावली पर शिफ्ट कर लूं”, सिद्धार्थ ने अपने पापा गोविंद प्रसाद जी से कहा।
सिद्धार्थ, गोविंद जी और सुधा का इकलौता बेटा है। सुधा वहीं पर बैठी मूकदर्शक बनी चुपचाप सुन रही है। पिछले कुछ दिनों से उसने किसी भी बात पर रिएक्ट करना छोड़ दिया था। नए घर की उमंग में सिद्धार्थ और उसकी पत्नी रिया दोनों बेहद खुश थे। सिद्धार्थ बहुत बड़ा अफसर है। रिया भी अमीर खानदान से ताल्लुक रखती है। गोविन्द जी ने अपने घर को बहुत चाव से बनवाया था। कोठी, बाग, बगीचा सब कुछ था। परन्तु जब सिद्धार्थ ने कहा कि उसने भी एक घर का सपना देखा है, अपने घर का, ये सुनकर गोविंद जी आश्चर्यचकित रह गए थे।
“अपना घर, तो ये किसका घर है?”
“नहीं, पापा! ये घर आपका है। मैं अपने घर को अपनी मेहनत से बनाना चाहता हूँ।” फिर उसने उनसे कुछ पूछने की जरूरत नहीं समझी थी। सब कुछ रिया और उसकी मर्जी से होने लगा था। बीच-बीच में सिद्धार्थ उनसे सलाह ले लिया करता था। जबरन उन्हें दो तीन बार साइट पर भी ले गया था। मां को तो न कुछ पूछा, न दिखाने की जरूरत महसूस की थी।
सुधा के अंदर तो जैसे सब कुछ टूट गया था। जिस बेटे को उसने जान से भी ज्यादा प्यार किया था उसने एक तरह से उसका तिरस्कार कर दिया था। तिरस्कार बोल कर ही नहीं चुप रह कर भी किया जा सकता है। सुधा महसूस कर सकती थी। रिया ने बहू के रूप में कभी उन्हें कोई तकलीफ नहीं दी थी। अमीर घर की बेटी होने के बावजूद उसका व्यवहार बेहद संस्कारी और संयमित था। पाँच साल का गोलू और रिया घर की रौनक थे। सुधा ने कभी भी रिया के साथ बुरा बर्ताव नहीं किया था। गोलू में तो सुधा की जान बसती थी। पर सुधा, बेटे के व्यवहार से बहुत आहत हो गई थी। कभी-कभी गोविंद जी से अकेले में बात करते हुए पूछती कि ये मुझे मेरे किन पापों का फल मिला? एक ही बेटा वह भी घर छोड़ कर चला जाएगा। गोलू और रिया...।
ये कह कर उसके आंसू निकल आते थे। मैंने तो अपने सास-ससुर की दिल से सेवा की। कभी उनका दिल नहीं दुखाया। अम्मा जी ने तो अंतिम समय मेरे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया था कि ईश्वर हमेशा तुझे खुशी देंगे। फिर पता नहीं, हमारे परिवार को किसकी बद्दुआ लग गई।
धीरे-धीरे दुःख मना कर उसने अपने दिल को समझा लिया था।
गोविन्द जी उसे समझाते कि तुम्हारा जब मन करे वहां चली जाना। बेटे की तरक्की पर दुःख नहीं मनाते, खुश होते हैं। रिया और सिद्धार्थ एक-एक चीज चुन-चुन कर ला रहे थे। गोविन्द जी को बेटे से दूर होने का दुःख था पर उन्होंने जाहिर नहीं किया। वे उसे महसूस कराते कि वे उसकी खुशी में खुश हैं।
आज धनतेरस है। गृहप्रवेश की सारी तैयारियां हो चुकी थी। सिद्धार्थ और रिया नए घर की खुशी में बेहद उत्साहित थे। सिद्धार्थ सुबह-सुबह नए कपड़े ले कर माँ-पापा के रूम में आया। पापा के लिए खूबसूरत सिल्क का कुर्ता बंद गले की जैकेट के साथ और माँ के लिए बेहद सुंदर सिल्क की साढ़ी मम्मी के पसंदीदा हरे लाल रंग की।
माँ! पापा! जल्दी से तैयार हो जाइए, ग्यारह बजे का मुहूर्त है। सुधा चुप थी। सोच रही थी कि बस तैयार हो जाओ और चलो। अंदर जैसे कुछ खत्म सा हो गया। न कोई उत्साह, न कोई खुशी। उसे जा कर सिर्फ खड़े होना है।
गोलू आ कर उसके गले से झूल गया - दादी माँ! आप मेरे साथ चलोगी न! आंखों में आँसू भर कर उसने गोलू को छाती से चिपका लिया। सुधा गाड़ी में पूरे रास्ते भर चुप थी। जिस दिन भूमि पूजन हुआ था, उसके बाद आज वो घर देखने जा रही है। गाड़ी से उतरते ही सामने बेटे की कोठी को सिर उठा कर देखा तो दंग रह गई।
बहुत खूबसूरत आधुनिक तरीके से डिजाइन किया गया था।
“आओ, माँ!”, बेटे ने माँ का हाथ पकड़ लिया।
महीनों बाद उसने कुछ कहा। सुधा सोच रही थी कि आज नए घर की उमंग में अपनी मां से अबोला खत्म कर रहा है।
घर के मेन गेट पर नेमप्लेट देख कर सुधा स्तब्ध हो गई।
“सुधा गोविंद निवास”
उसका दिल बहुत तेजी से धड़क उठा। बेटा, माँ के चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश कर रहा था। अंदर रिया खड़ी मुस्कुराई।
“आइए माँ! आपके नए घर में आपका स्वागत है। ये लीजिए आपकी अमानत”, रिया ने घर की चाभियां सुधा के हाथ में रख दी।
बेटे ने माँ का हाथ चूम लिया। “माँ! अपने नए घर में भगवान के लिए भोग अपने हाथ से बनाओ पर प्रसाद मेरी पसंद का होगा।”
सुधा समझ ही नहीं पा रही थी। क्या बनाऊँ? सुधा की आंखों से आंसू टपक पड़े।
“हलवा बनाऊंगी। मेरे कान्हा जी की और तेरी पसंद का।”
“पहले अपना और पापा का रूम देख लो माँ!”, सुधा को लगभग खींचते हुए रुम में ले गया। सुधा देख रही थी उस रूम में सब कुछ उसकी पसंद का था।
आज उसे समझ आया कि मकान ईंट-पत्थर से बनता है और घर उसमें रहने वाले लोगों से, जो एक-दूसरे के मन में निवास करते हैं।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
🙏🙏🙏
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दिल को छू गई
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