सत्संग
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सत्संग
Image by Jill Wellington from Pixabay
संत ने चोर को कहा कि तू चोरी कर लेकिन...
नागार्जुन स्वामी से एक चोर ने कहा था कि तुम ही एक आदमी हो जो शायद मुझे बचा सको। यूं तो मैं बहुत महात्माओं के पास गया, लेकिन मैं जाहिर चोर हूँ, बहुत प्रसिद्ध चोर हूँ, और मेरी प्रसिद्धि यह है कि मैं आज तक पकड़ा नहीं गया हूँ। मेरी प्रसिद्धि इतनी हो गई है कि जिनके घर चोरी भी नहीं की, वे भी लोगों से कहते हैं कि उसने हमारे घर चोरी की। क्योंकि मैं उसी के घर चोरी करता हूँ जो सच में धनवान है। मैं हर किसी एैरे-गैरे-नत्थू-खैरे के घर चोरी नहीं करता। सम्राटों पर ही मेरी नजर होती है और कोई मुझे पकड़ नहीं पाया है। लेकिन मैं महात्माओं से अपने कल्याण के बारे में पूछता हूँ तो वे कहते हैं - पहले चोरी छोड़ो।
उस चोर ने कहा - आप समझ सकते हैं कि यह तो मैं नहीं छोड़ सकता। यह छोड़ सकता तो इन महात्माओं के पास ही क्यों जाता? खुद ही छोड़ देता। कोई ऐसी तरकीब बता सकते हो कि मुझे चोरी छोड़नी न पड़े और छूट जाए। क्योंकि छोड़नी पड़ेगी तो मुझसे नहीं छूट सकेगी, यह मैं कर-कर के देख चुका हूँ। बहुत नियम संयम की कसमें खा ली। सब कसमें टूट गई और हर बार चित आत्मग्लानि से भर गया, क्योंकि मैं फिर-फिर वही कर लेता हूँ।
नागार्जुन ने कहा कि तूने फिर अब तक किसी महात्मा का सत्संग किया ही नहीं है। नहीं तो तू ये बात कहता ही नहीं। चोरी से क्या डरना, तू जितना चाहे जी भरकर चोरी कर।
चोर चौंका, उसने कहा - क्या कहते हो, चोरी जी भर करूँ?
नागार्जुन ने कहा - चोरी जी भर के कर, चोरी में कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। सिर्फ एक बात का ध्यान रख कि चोरी करते वक्त होश सम्हाले रखना। जानकर चोरी करना कि चोरी कर रहा हूँ, कि यह देखो ताला खोला। यह देखो तिजोरी खोली, यह देखो हीरे निकाले, ये हीरे मेरे नहीं हैं, दूसरे के हैं। बस होश रहे। रोकना मत। चोरी नहीं करने को मैं कहता नहीं कि मत कर। जी भर के कर, दिल खोल के कर, पर होशपूर्वक कर।
पंद्रह दिन बाद वह चोर आया और उसने कहा कि तुमने मुझे फांसा, तुमने मुझे मुश्किल में डाल दिया। कोई महात्मा मुझे मुश्किल में न डाल सका था। मैं कसमें ले लेता था, तोड़ देता था। फिर कसमें लेना और तोड़ना ही मेरा ढंग हो गया था। यही मेरे जीवन की शैली हो गई थी। वही मेरी आदत बन गई। लेकिन तुमने मुझे उलझा दिया। यह तुमने क्या बात कही, अगर होश रखता हूँ तो तिजोरी खुली रह जाती है। हीरे सामने होते हैं, हाथ नहीं बढ़ता और अगर हाथ बढ़ता है तो होश खोता है। दोनों बातें साथ नहीं सधती। चोरी करूँ तो होश खोता है और होश सम्हालूँ तो चोरी नहीं होती।
नागार्जुन ने कहा - अब यह तू जान, अब यह तेरा झंझट है। हमारा काम खत्म हो गया। अब तुझे जो बचाना हो, होश बचाना हो तो होश बचा लो, चोरी बचानी है तो चोरी बचा ले। हमें क्या लेना-देना है, तेरी जिंदगी तू जान।
चोर ने कहा - तुमने तो और मुश्किल खड़ी कर दी। क्योंकि दो बार होश को बचा कर बिना चोरी किए हुए घर लौट आया और जीवन में जो आनंद और जो शांति मैंने पाई उन रातों में, ऐसी कभी न पाई थी। अगर हीरे भी ले आता तो किसी काम के न थे। हीरे छोड़ कर आया, हाथ खाली थे, पर अंदर कुछ झर रहा था। एक आनंद, एक गुदगुदाहट सी। तिजोरी मैंने खोल ली थी, सामने हीरे दमदमा रहे थे। उनको छोड़ कर आया। पर ये मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि चोरी न करने के बाद भी ऐसा संतोष, ऐसा आनंद, ऐसी प्रफुल्लता, जैसी मैंने पहले कभी नहीं जानी थी।
एक तृप्ति पाई, ऐसा संतोष पाया, मैं तो सोच रहा था कि घर जाकर मन में पछतावा होगा कि क्यों हाथ में आये हीरे छोड़ दिए। पर मुझे उन से भी कहीं अधिक मिल गया उन्हें छोड़ कर। मूर्च्छा तो अब फिर वापस नहीं ले सकता, जागृति तो बचानी ही होगी।
तो नागार्जुन ने कहा - फिर तू समझ, जागृति बचानी है तो चोरी जाएगी। दोनों साथ नहीं चल सकती।
शील चरित्र, आचरण ऊपरी बाते हैं। समाधि, ध्यान भीतरी बात है। शील तो उसकी साधारण-सी अभिव्यक्ति है। अपने आप जैसे तुम्हारे पीछे छाया चलती है, ऐसे ही समाधि के पीछे सम्यक् आचरण चलता है। सम्यक् बोध हो तो उसके पीछे सम्यक् आचरण चलता है और अगर तुम मूर्च्छित हो तो लाख उपाय करो, तुम्हारे सब उपाय व्यर्थ जाएंगे, तुम मूर्च्छित ही रहोगे।
आपमें कोई भी बुराई हो, शराब पीने की, गाली बकने की या झूठ बोलने की....यदि आप उपरोक्त कहानी के अनुसार कार्य करेंगे तो निश्चित ही वह बुराई छूट जाएगी।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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