आधा सेर आटा

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आधा सेर आटा

(चिंता अगली पीढ़ी की)

Image by bess.hamiti@gmail.com from Pixabay

एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए। पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है।

सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा - “कुल कितनी सम्पदा है?”

लेखाधिकारी ने कहा - “सेठ जी! मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए-धरे आनन्द से भोग सके, इतनी सम्पदा है आपकी।”

लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए। ‘तो क्या मेरी आठवीं पीढ़ी भूखों मरेगी?’ वे रात-दिन चिंता में रहने लगे। वे तनावग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी। कुछ ही दिनों में वे कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते। सेठानी से उनकी हालत देखी नहीं जा रही थी।

उसने मन की स्थिरता व शान्ति के लिए साधु-संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह विचार पसंद आया कि चलो अच्छा है। संत अवश्य कोई विद्या जानते होंगे, जिससे मेरे दुःख दूर हो जायें।

सेठ सीधा संत समागम में पहुँचा और एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ ने कहा - “महाराज! मेरे दुःख का तो पार नहीं है। मेरी आठवीं पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो, इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरें। आप जो भी बताएंगे, मैं अनुष्ठान, विधि आदि करने को तैयार हूँ।”

संत ने समस्या समझी और बोले - “इसका तो हल बहुत आसान है। ध्यान से सुनो सेठ! बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है। एकदम कंगाल और विपन्न। उसका न कोई कमाने वाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित फल प्राप्त होगा।”

सेठ को बहुत आसान उपाय मिल गया। उसे सब्र कहां था। घर पहुंच कर सेवक के साथ क्विंटल भर आटा लेकर पहुँच गया बुढ़िया के झोपड़े पर।

सेठ ने कहा - “माताजी! मैं आपके लिए आटा लाया हूँ। इसे स्वीकार कीजिए।”

बूढ़ी मां ने कहा - “बेटा! आटा तो मेरे पास है। मुझे नहीं चाहिए।”

सेठ ने कहा - “फिर भी रख लीजिए।”

बूढ़ी मां ने कहा - “क्या करूँगी रख कर। मुझे आवश्यकता नहीं है।”

सेठ ने कहा - “अच्छा! कोई बात नहीं। क्विंटल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए।”

बूढ़ी मां ने कहा - “बेटा! आज खाने के लिए जो जरूरी था, वह आधा किलो आटा पहले से ही मेरे पास है। मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है।”

सेठ ने कहा - “तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए।”

बूढ़ी मां ने कहा - “बेटा! कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ? जैसे हमेशा प्रबंध होता है, कल के लिए कल प्रबंध हो जाएगा।” बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया।

सेठ की आँख खुल चुकी थी। एक ग़रीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवीं पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं, तृष्णा है।

वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है। संग्रहखोरी तो दूषण ही है। संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है।

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 सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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