कार्यम् वा साधयेयं देहम् वा पातयेयम्

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कार्यम् वा साधयेयं देहम् वा पातयेयम्

Image by NoName_13 from Pixabay

हमारा लक्ष्य अर्जुन की तरह होना चाहिये। जब तक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, हमें प्रयास नहीं छोड़ना चाहिये। आज महाभारत के युद्ध में अर्जुन की कथा की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करूँगा।

महाभारत का भयंकर युद्ध चल रहा था। अर्जुन को लड़ने के लिए रणक्षेत्र से दूर सीमा पर भेज दिया गया। अर्जुन की अनुपस्थिति में पाण्डवों को पराजित करने के लिए द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की। अर्जुन-पुत्र अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदने के लिए उसमें घुस गया।

उसने कुशलतापूर्वक चक्रव्यूह के छः चक्र भेद लिए। लेकिन सातवें चक्र में उसे दुर्योधन, जयद्रथ आदि सात महारथियों ने घेर लिया और वे उस पर टूट पड़े। जयद्रथ ने पीछे से निहत्थे अभिमन्यु पर जोरदार प्रहार किया। वह वार इतना तीव्र था कि अभिमन्यु उसे सहन नहीं कर सका और वीरगति को प्राप्त हो गया।

अभिमन्यु की मृत्यु का समाचार सुनकर अर्जुन क्रोध से पागल हो उठा। उसने प्रतिज्ञा की कि यदि अगले दिन सूर्यास्त से पहले उसने जयद्रथ का वध नहीं किया तो वह आत्मदाह कर लेगा। जयद्रथ भयभीत होकर दुर्योधन के पास पहुँचा और अर्जुन की प्रतिज्ञा के बारे में बताया।

दुर्योधन उसका भय दूर करते हुए बोला - “चिंता मत करो, मित्र! मैं और सारी कौरव सेना तुम्हारी रक्षा करेंगे। अर्जुन कल तुम तक नहीं पहुँच पाएगा। उसे आत्मदाह करना ही पड़ेगा।”

अगले दिन युद्ध शुरू हुआ।

अर्जुन की आँखें जयद्रथ को ढूँढ रही थी, किंतु वह कहीं नहीं मिला। दिन बीतने लगा। धीरे-धीरे अर्जुन की निराशा बढ़ती गई। यह देख श्री कृष्ण बोले - “पार्थ! समय बीत रहा है और कौरव सेना ने जयद्रथ को रक्षा कवच में घेर रखा है। अतः तुम शीघ्रता से कौरव सेना का संहार करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ो।”

यह सुनकर अर्जुन का उत्साह बढ़ा और वह जोश से लड़ने लगा। लेकिन जयद्रथ तक पहुँचना मुश्किल था। संध्या होने वाली थी। तब श्री कृष्ण ने अपनी माया फैला दी। इसके फलस्वरूप सूर्य बादलों में छिप गया और संध्या का भ्रम उत्पन्न हो गया।

‘संध्या हो गई है और अब अर्जुन को प्रतिज्ञावश आत्मदाह करना होगा’ - यह सोचकर जयद्रथ और दुर्योधन खुशी से उछल पड़े। अर्जुन को आत्मदाह करते देखने के लिए जयद्रथ कौरव सेना के आगे आकर अट्टहास करने लगा।

जयद्रथ को देखकर श्री कृष्ण बोले - “पार्थ! तुम्हारा शत्रु तुम्हारे सामने खड़ा है। उठाओ अपना गांडीव और वध कर दो इसका। वह देखो, अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है।”

यह कहकर उन्होंने अपनी माया समेट ली। देखते-ही-देखते सूर्य बादलों से निकल आया। सबकी दृष्टि आसमान की ओर उठ गई। सूर्य अभी भी चमक रहा था।

यह देख जयद्रथ और दुर्योधन के पैरों तले जमीन खिसक गई। जयद्रथ भागने को हुआ लेकिन तब तक अर्जुन ने अपना गांडीव उठा लिया था।

तभी श्री कृष्ण चेतावनी देते हुए बोले - “हे अर्जुन। जयद्रथ के पिता ने इसे वरदान दिया था कि जो इसका मस्तक जमीन पर गिराएगा, उसका मस्तक भी सौ टुकड़ों में विभक्त हो जाएगा। इसलिए यदि इसका सिर ज़मीन पर गिरा तो तुम्हारे सिर के भी सौ टुकड़े हो जाएँगे। हे पार्थ! उत्तर दिशा में यहाँ से सौ योजन की दूरी पर जयद्रथ का पिता तप कर रहा है। तुम इसका मस्तक ऐसे काटो कि वह इसके पिता की गोद में जाकर गिरे।”

अर्जुन ने श्री कृष्ण की चेतावनी ध्यान से सुनी और अपने लक्ष्य की ओर ध्यान कर बाण छोड़ दिया। उस बाण ने जयद्रथ का सिर धड़ से अलग कर दिया और उसे लेकर सीधा जयद्रथ के पिता की गोद में जाकर गिरा। जयद्रथ का पिता चौंककर उठा तो उसकी गोद में से सिर ज़मीन पर गिर गया। सिर के जमीन पर गिरते ही उसके सिर के भी सौ टुकड़े हो गए। इस प्रकार अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी हुई।

‘कार्यम् वा साधयेयं देहम् वा पातयेयम्’ का अर्थ है कि या तो मैं अपने कार्य की सिद्धि करूँगा अर्थात् पूर्ण करूँगा, या देह को भूमि पर गिरा दूँगा अर्थात् मृत्यु को प्राप्त करूँगा। इस सूक्ति का मूल उद्देश्य हमें यह समझना है कि किसी भी कार्य को करते समय हमें उसमें दत्तचित्त होकर लग जाना चाहिए। उस कार्य को सम्पन्न करने में हमारे सामने चाहे कितनी भी, कैसी भी परेशानियाँ क्यों न आएँ, हमें अपने कार्य से विरत नहीं होना चाहिए। हमें इसी संकल्प से उस कार्य में लगे रहना चाहिए।

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 सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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