संस्कार

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संस्कार

Image by Christophe BILLARD from Pixabay

एक गांव में तालाब था। उस तालाब पर तीन स्त्रियाँ पानी भरने गयी। वहाँ पर पहले से ही एक बूढ़ा आदमी बैठ कर कुछ खा रहा था। तीनों औरतें जमीन पर अपने-अपने घड़े रख कर बैठ गई और उस बूढ़े को सुना कर आपस में बातें करने लगी।

एक औरत ने दूसरी औरत से कहा - मेरा लड़का पंडित पोथाराम का शिष्य है और बाहर से पढ़ कर शास्त्रों का ज्ञान सीख कर आया है। उसने पूरे मोहल्ले में धूम मचा कर रख दी है। पूरे गांव में बस हमारे लड़के के ही चर्चे हो रहे हैं। अपने बेटे की बड़ाई करते हुए उसने कहा कि सुनो सखी! वह आकाश के तारों को गिन कर उनका नाम बता देता है। स्वर्गलोक की सारे बातें उसे पूरी तरह मालूम हैं। यमराज के दरबार में कैसे फैसला होता है, उसको ये भी मालूम है। सभी देवगणों के नाम, यमदूतों के नाम और सभी नरकों के नाम-धाम सब उसे याद हैं। पता नहीं, वह कैसे भगवान की सब बातें जान लेता है? जब वह शादी-ब्याह कराता है, तो सारे पंडित उसके आगे चुप हो जाते हैं। मैं ऐसे पंडित बेटे को जन्म देकर अपने को बहुत धन्य मानती हूँ। बाहर जब भी कोई मुझे देखता है, तो कहता है - देखो! शास्त्री जी की माँ जा रही है।

उसकी बात सुन कर दूसरी औरत बोली - अरे सखी! मेरे बेटे के गुण सुनोगी, तो तुम भी सोच में डूब जाओगी। मेरे बेटे जैसा पहलवान आसपास के दस-बीस गांवों में नहीं है। वह रोज सुबह और शाम दोनों समय 500 उठक-बैठक लगाता है। अखाड़ों में जब वह ताल ठोक कर उतरता है तो बड़े-बड़े पहलवान उसके आगे अपनी जान की भीख मांगने लगते हैं। बहन जी! सच मानना, उसके जितना पहलवानी में आज तक किसी ने नाम नहीं कमाया। मैं उसे हलवे, मालपुए दिन भर खिलाती रहती हूँ। खा-पीकर जब वह हाथी की तरह झूमता हुआ सैर करने निकलता है, तो मैं फूली नहीं समाती। अभी-अभी मैं जिस रास्ते से आ रही थी, तो रास्ते में एक आदमी ने मेरी तरफ देखते हुए अपने बेटे से कहा - देखो! पहलवान की माँ जा रही है। मेरे बेटे जैसा लड़का शायद ही किसी का होगा। सच मानो सखी! मैं अपने बेटे की बड़ाई सुन कर खुशी से झूम उठती हूँ।

दोनों स्त्रियों की बातों को सुन कर भी तीसरी औरत चुप रही। इस पर एक स्त्री बोली - तेरी हालत देख कर ऐसा लगता है, मानो तेरा बेटा लायक नहीं निकला। इस बात पर तीसरी औरत बोली - देखो! मेरा बेटा जैसा भी है, मेरे लिए बहुत अच्छा है। उसे नाम कमाने की लालसा नहीं है। वह बिल्कुल सीधे स्वभाव का है। दिन भर खेतों में काम करता है। शाम को घर आकर घर के लिए पानी भर देता है। घर के काम से उसे उतना समय ही नहीं मिलता कि वह नाम कमाये। आज मेरे बहुत कहने पर वह मेला देखने गया है। तभी मुझे पानी भरने आना पड़ा। मुझे आज इधर आते देख कर देखने वाले इसी बात पर आश्चर्य करते थे कि आज मुझे पानी भरने के लिए कैसे निकलना पड़ा?

तीनों स्त्रियों की बातें समाप्त हुई तो वे जल्दी-जल्दी अपने पानी के घड़ों को भर कर वहाँ से अपने घर के लिए रवाना हो गयी। बूढ़ा आदमी भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। थोड़ी दूर चलने के बाद पीछे से तीन युवक आ रहे थे। वे तीनों उन स्त्रियों के लड़के थे, जो मेले से घर लौट रहे थे।

शास्त्री लड़के ने पहली स्त्री के पास जाकर कहा - माँ! मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि इस रास्ते से जा रहा हूँ क्योंकि रास्ते में तुम मिल गयी। यह कह कर वह जल्दी-जल्दी अपने घर को जाने लगा।

पहलवान लड़के ने दूसरी स्त्री से कहा - माँ! मैं मेले के दंगल में बाजी मार कर आ रहा हूँ। जल्दी पानी लेकर घर आना। मुझे बहुत भूख लगी है। यह कह कर दूसरा लड़का भी घर की ओर चला गया।

इसके बाद तीसरा लड़का, तीसरी औरत के पास आया और वह उसके हाथ से पानी का घड़ा लेकर बोला - माँ! तू पानी भरने क्यों आयी? मैं तो आ ही रहा था। वह घड़ा लेकर माँ के साथ अपने घर की ओर चल पड़ा।

तब अपने-अपने बेटों की ओर इशारा करते हुए तीनों स्त्रियों ने साथ चलने वाले बूढ़े आदमी से पूछा - बाबा! तुम हमारे बेटों के बारे में क्या कहते हो? बूढ़ा आदमी अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरता हुआ बोला - तुम लोग अपने-अपने बेटों के बारे में चाहे जो कुछ भी कहो, मेरी राय में तीनों में से केवल एक लड़के के पास ऐसी समझ है जिसे नैतिक शिक्षा का अर्थ मालूम है। जिसे वास्तव में बेटा कहा जा सकता है। पहले दो तो अपनी-अपनी माँ के पेट से निकलकर उनसे बहुत दूर हो गए हैं। तीसरा अपनी माँ के शरीर से अलग होते हुए भी माँ के मन से मन मिलाए हुए है। जिसमें आत्मीयता है, मैं तो उसी को सपूत मानता हूँ।

बूढ़े आदमी की बात सुन कर दोनों स्त्रियों के मुंह शर्म से छोटे होकर नीचे झुक गए, जैसे पेड़ से चमगादड़ लटकता है। तीसरी स्त्री का मुंह गर्व से ऊंचा हो गया।

इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि अगर घर में कोई बुजुर्ग, जवान लड़के के सामने काम करे और लड़का सैर-सपाटा और अय्याशी करे, तो इससे ज्यादा शर्म की बात उस लड़के के लिए कुछ नहीं हो सकती। घर के काम में हाथ बंटाना, बड़े-बुजुर्गों की सेवा करना, जितना हो सके घर का काम बड़ों से करवाने की बजाय खुद करना, यही एक अच्छे सपूत की पहचान होती है।

साथियों! हमें अपने माता-पिता की सेवा सच्चे मन से करनी चाहिए, क्योंकि माता-पिता की सेवा के बिना पूरा कमाया हुआ धर्म एक तिनके के समान है, जो हवा के हल्के से झोंके से उड़ सकता है। अगर हमारे माता-पिता ख़ुश हैं, उनको किसी प्रकार का दुःख हमारी वजह से नहीं पहुँचता हो, तो एक बेटे के लिए इससे बड़ी सपूत कहलाने की बात कुछ नहीं हो सकती।

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 सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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