श्रद्धा और अहं

👼👼💧💧👼💧💧👼👼

श्रद्धा और अहं

Image by Christel SAGNIEZ from Pixabay

साधक को धर्म साधना का जो पक्ष शक्ति देता है, उसका नाम है श्रद्धा या आस्था। आस्था ज्ञान की सामग्री नहीं है, जानकारियों का जोड़ नहीं है। वह है ईश्वरीय श्रद्धा, संपूर्ण विश्व को समर्पित एक अवस्था; जो मन किसी आस्था में ध्रुव की भांति निश्चल मन से करता है, उसे स्वतः अलौकिक व चमत्कारिक शक्तियों की रिद्धि-सिद्धियों का अधिपतित्व प्राप्त हो जाता है।

आस्था के पथ पर अडिग खड़ा मन किसी भी परिस्थिति में स्वयं में निराश्रित, निस्सहाय अनुभूत नहीं करता। दैवीय अनुकंपाएं उस पर बरसती रहती हैं। इसके विपरीत श्रद्धा से रीता घट, जो मात्र मिथ्या ज्ञान के दम्भ से भरा होता है, वह केवल हास्य और कष्टों का पात्र बनता है। उसे जगह-जगह छोटे-बड़े सभी के समक्ष मात खानी पड़ती है। एक शिष्य और गुरु का उदाहरण इसका साक्ष्य है।

एक दिन एक शिष्य, जिसे अपने गुरु पर आगाध श्रद्धा थी, गुरु के दर्शनार्थ अपने घर से गुरु आश्रम की ओर चल पड़ा। रास्ते में एक नदी पड़ी। उसे अपने गुरु पर गहरी श्रद्धा थी। अतः वह नदी को अपने गुरु के बीच में बाधक नहीं बनाना चाहता था। वह नदी के किनारे पहुंचा, तो आँखें बंद कर के गुरु का स्मरण किया और पानी में कदम रखकर नदी में उतर पड़ा। क्या हुआ? कैसे नदी पार हुआ? उसे कुछ भी ज्ञात नहीं था।

जब उसने आँखें खोली, तो नदी के दूसरे किनारे पर बसे गुरु आश्रम के निकट स्वयं को खड़ा पाया। गुरु ने अपने प्रिय शिष्य को एक लंबे अरसे के पश्चात् देखा था। उनकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था। यही स्थिति शिष्य की थी। शिष्य जैसे ही गुरु चरणों का स्पर्श करने के लिए नीचे झुका कि गुरु ने उसे बीच में ही उठाकर कंठ से लगा लिया।

शिष्य ने कुशल क्षेम पूछने के साथ-साथ गुरु को निवेदित किया - गुरुदेव! नदी अपार जल-राशि संपूरित थी, किंतु आपका नाम लेने से आपके उत्कट दर्शन की अभिलाषा में वह अवरोधक नहीं बन सकी। आपके दर्शन कर के मैं धन्य हो गया। मेरा जीवन सफल हो गया।

गुरु ने सुना, तो नदी की जलराशि पर उनकी निगाहें जा टकराई। वे दंग रह गए और सोचने लगे कि मेरे नाम में यदि इतनी शक्ति है तो मैं बहुत ही महान् और शक्तिशाली हूँ। अगले दिन अपनी महत्ता और शक्ति सत्ता के झूठे दम्भ में झूमता हुआ वह नदी में पहुँचा। नाम का आश्रय न लेकर मैं....मैं....मैं.... कितना महान हूँ! देखो! ऐसा कहते ही जैसे ही उसने नदी के जल में पहला कदम बढ़ाया कि पैर रखते ही वे नदी में डूबने लगे। देखते ही देखते उनका प्राणान्त हो गया।

स्पष्ट है कि श्रद्धा तारती है और मैं या पद का झूठा दंभ डुबोता है। श्रद्धा और अहं की यात्राएं एकदम अलग हैं। अहं में तर्क है, गणित है, जोड़-घटा व गुणा भाग है। उसमें सोच-विचार सब कुछ मौजूद है। जबकि श्रद्धा में निहित है केवल समर्पण! उसका रिश्ता है तो सिर्फ आत्मिक भावों के साथ।

बाह्य विभूति, पद, पैसा, प्रतिष्ठा, हुकूमत उसके विषय नहीं हैं। अहं बुद्धि से बात करता है और श्रद्धा हृदय से। मृत्यु के बाहर महाद्वार पर भी श्रद्धा को आँच नहीं आती। जबकि अहं छोटी सी बात पर लावे के समान उबलने लगता है। श्रद्धा है कण्टीले जीवन की हरियाली, जिस पर सर्व समृद्धियों के सुमन महकते हैं और अहं है वह शुष्क भूमि, जिसमें ठोकर खाने के लिए मात्र दुर्भावनाओं के कंकड़, पत्थर और गड्ढे ही गड्ढे मिलते हैं।

--

 सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

🙏🙏🙏


विनम्र निवेदन

यदि आपको यह लेख प्रेरणादायक और प्रसन्नता देने वाला लगा हो तो कृपया comment के द्वारा अपने विचारों से अवगत करवाएं और दूसरे लोग भी प्रेरणा ले सकें इसलिए अधिक-से-अधिक share करें।

धन्यवाद।

Comments

Popular posts from this blog

अगली यात्रा - प्रेरक प्रसंग

Y for Yourself

आज की मंथरा

आज का जीवन -मंत्र

बुजुर्गों की सेवा की जीते जी

स्त्री के अपमान का दंड

आपस की फूट, जगत की लूट

वाणी हमारे व्यक्तित्व का दर्पण है

मीठी वाणी - सुखी जीवन का आधार

वाणी बने न बाण