वेश नहीं वृत्ति बदलो

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वेश नहीं वृत्ति बदलो

Image by Jörg Möller from Pixabay

एक राजा था। बहुत ही न्यायप्रिय और धर्मनिष्ठ। उसकी राजधानी में जब भी कोई संत महापुरुष आते, वह सत्संग करने पहुँच जाता। एक बार एक पहुँचे हुए संत रामसेन मुनि अपने चार शिष्यों सहित राजधानी अवंतिका पधारे। चातुर्मास का समय निकट था। अतः चातुर्मास स्थापना नगर उद्यान में कर ली। राजा जयसिंह ने चातुर्मास साधु सेवा, दर्शन, प्रवचन में गुज़ार दिया। संतों के वैराग्य वर्धक तत्वोपदेश से राजा का मन वैराग्य से युक्त हो गया। उन्होंने अपनी बात संघ नायक भगवंत रामसेन मुनि के सम्मुख रखी।

मुनि श्री ने राजा को समझाया - मुनिचर्या सामान्य बात नहीं है। जीवन पर्यंत खड़्ग की धार पर चलने की साधना है। उपसर्ग और परिषहों से भरा मार्ग है। इसमें तो पग-पग पर सावधानी की ज़रूरत है। यहाँ तो किंचित भी कषाय जीवित रही, तो उसका साधुत्व विलुप्त हो जाता है। आप जैसे सुविधा भोगी जीवों को मन पर नियंत्रण रखना, संपूर्ण व्योम को सिंदूर की डिब्बी में भरने जैसा दुष्कर कार्य है। अभी आप ब्रह्मचर्य की साधना पूर्वक क्षुल्लक व्रत स्वीकार करो, पश्चात् साधुव्रत धारण करना।

राजा ने कहा - भगवन्! चिंता न कीजिए। मैं भी आप जैसा ही मनुष्य हूँ। जब आप मेरे जैसे इंसान होकर इस मार्ग पर चल सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं चल पाऊंगा? आप मुझे दीक्षा दीजिए। मैं आप की कसौटी पर खरा उतरूँगा। यह मेरा आपसे वादा है।

राजा ने मुनि रामसेन को सर्व प्रकार से संतुष्ट किया और मुनि-दीक्षा धारण कर ली। ‘विमोचिता वास’ स्वरूप एक पर्णकुटी थी, जिसमें वह अपने गुरु भाइयों के साथ रहकर जप-तप करने लगा।

स्वाध्याय, सामायिक आदि के पश्चात् उसे जब भी समय मिलता, पर्णकुटी को सजाने लगता। जंगली मयूरों के पंखों से पर्णकुटी पर मयूरें बना दी, सीप-कौड़ियों व रंग-बिरंगे पत्थर के टुकड़ों से सुंदर-सुंदर चित्र बना दिए। महाराजा जयसिंह का अधिकांश समय पर्णकुटी की सज्जा में बीतने लगा।

एक दिन मुनि रामसेन उस पर्णकुटी के समीप से गुज़र रहे थे। जयसिंह महाराज ने उठकर गुरु का सत्कार किया। प्रणाम करके उनसे अंदर आने का आग्रह किया। काफी समय तक बातों का आदान-प्रदान होता रहा। इसी सिलसिले में जयसिंह महाराज ने अपने गुरुदेव से कहा - ‘गुरुदेव! आप आज रात्रि इसी पर्णकुटी में बिताएं।’

मुनि के आग्रह पर गुरुदेव ने उसी पर्णकुटी में रात्रि बिताई। प्रातःकाल चलने लगे तो शिष्य ने पूछा - ‘गुरुदेव! कुटिया में कोई कष्ट तो नहीं हुआ।’ तत्काल मुनि रामसेन बोले - ‘राजमहल-सी कुटिया में कष्ट कैसा? जयसिंह! अभी तक तेरी वृत्ति नहीं बदली। यदि तुझे राजसी ठाठ-बाट से ही रहना था, तो राजमहल छोड़ कर संन्यासी का स्वांग ही क्यों रचा?’

गुरु के वचनों से जयसिंह का मोह-तिमिर छंटने लगा। उसकी आंखों में पश्चाताप के अश्रु छलछला आए। शिष्य गुरु के चरणों में गिर गया। गुरु ने बहुत स्नेह से उसे उठाते हुए संबोधित किया - वत्स! उठो और अपनी वृत्ति बदलो, केवल वेश नहीं। अभी तो तुमने केवल वेश बदला है। असली संन्यास तो वृत्ति बदलने से ही घटित होगा।

सुविचार - प्रमाद में समय खोना, अपनी उन्नति को खोना है।

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 सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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