चिंतन

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चिंतन

Image by Erik Lyngsøe from Pixabay

यूनान के मशहूर दार्शनिक सुकरात भ्रमण करते हुए एक नगर में गए। वहाँ उनकी मुलाकात एक वृद्ध सज्जन से हुई। दोनों आपस में काफी घुल-मिल गए। वृद्ध सज्जन आग्रहपूर्वक सुकरात को अपने निवास पर ले गए। भरा-पूरा परिवार था उनका। घर में बहू-बेटे, पौत्र-पौत्रियां सभी थे।

सुकरात ने वृद्ध से पूछा, ‘आपके घर में तो सुख-समृद्धि का वास है। वैसे अब आप करते क्या हैं?’

वृद्ध बोले, ‘अब मुझे कुछ नहीं करना पड़ता। अच्छा कारोबार है, जिसकी सारी जिम्मेदारियां अब बेटों को सौंप दी हैं। घर की व्यवस्था बहुएं संभालती हैं। इसी तरह जीवन सुखपूर्वक चल रहा है। मैंने जीवन के इस मोड़ पर एक ही नीति अपनाई है कि दूसरों से अधिक अपेक्षाएं मत पालो और जो मिले, उसमें संतुष्ट रहो। मैं और मेरी पत्नी अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने बेटे-बहुओं को सौंपकर निश्चिंत हैं। अब वे जो कहते हैं, वह मैं कर देता हूँ और जो कुछ भी खिलाते हैं, खा लेता हूँ। अपने पौत्र-पौत्रियों के साथ हंसता-खेलता हूँ। मैं बच्चों के किसी कार्य में बाधक नहीं बनता।’

‘पर कभी तो आपका मन करता होगा कि वे आपकी बात मानें, या सुनें?’, सुकरात ने पूछा।

वृद्ध बोले, ‘अगर वे मेरे पास सलाह के लिए आते हैं, तो मैं अपने अनुभव के हिसाब से उनको दुष्परिणामों के बारे में सचेत कर देता हूँ। अब वे मेरी सलाह पर अमल करते हैं या नहीं करते, यह देखना और अपना मन व्यथित करना मेरा काम नहीं है। वे मेरे निर्देशों पर चलें ही, मेरा यह आग्रह नहीं होता। परामर्श देने के बाद भी यदि वे भूल करते हैं तो मैं चिंतित नहीं होता।’

बुजुर्ग सज्जन की यह बात सुन कर सुकरात बहुत प्रसन्न हो गए और बोले, ‘इस आयु में जीवन कैसे जिया जाए, यह आपने सम्यक् समझ लिया है। हम जैसा बोलते हैं वैसी ही गूंज होती है।’

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 सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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