मूर्ख पुत्र

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मूर्ख पुत्र

Image by Niklas Ernst from Pixabay

एक वृद्ध व्यक्ति अपने जीवन के अन्तिम पड़ाव पर था। उसके पांच पुत्र थे। पांचो की प्रकृति अलग-अलग थी। वह बूढ़ा अचानक बीमार पड़ गया। बड़े पुत्र ने अपने पिता को चरपाई पर लेटे देखा, तो उनके पास आकर उनका हाल पूछा। पिता बोले - बेटा! बुढ़ापा तो स्वयं ही आदमी को अशक्त कर देता है। लगता है कि अब मैं अधिक दिन तक जीवित नहीं रह सकूंगा।

बड़ा बेटा अपने भाईयों के पास गया और उन्हें बताया कि पिताजी को डॉक्टर साहब को बुला कर एक बार दिखा देना चाहिए। शायद उनकी पीड़ा कुछ कम हो जाए।

दूसरे पुत्र ने कहा - डॉक्टर की तो फीस ही बहुत ज़्यादा होती है। उसकी अपेक्षा आयुर्वेदिक उपचार अधिक लाभकारी होता है। मेरे पास हिंगाष्टक चूरण रखा है। उसे लेने से पिताजी स्वस्थ हो जाएंगे।

तीसरे पुत्र ने कहा - अरे! ये देसी दवाइयाँ तो लोग पहले लेते थे। इससे ठीक होने में तो बहुत समय लगता है। आजकल किसके पास इतना समय है? होम्योपैथिक दवा से तत्काल लाभ मिलता है। वही दे देते हैं।

चौथे पुत्र ने कहा - उनके लिए तो बायोकैमिक उचित रहेगा।

इस प्रकार परस्पर झगड़ा होने लगा। अपने-अपने चिंतन पर सब भाई अडिग थे। पांचवा भाई चारों की आपसी खींचातानी देख रहा था। तभी वह ज़ोर से बोल पड़ा - अरे भाई! झगड़ो मत। इस सारी लड़ाई का मूल कारण है यह बुड्ढा। यह बुड्ढा सारा दिन क्या काम करता है? यह तो निकम्मा है। सारा दिन चारपाई पर ही पड़ा रहता है। इसे ही परलोक पहुंचा दो, तो सारा झगड़ा खत्म हो जाएगा।

बूढ़ा उनकी सारी बातें सुन रहा था। वह धीमे स्वर में बोल पड़ा - पुत्रों! आपस में झगड़ा मत करो। मैं अपने आप स्वस्थ हो जाऊंगा। मुझे किसी भी औषधि की अपेक्षा नहीं है। पुत्रों! मुझे मार मत देना। मैंने तुम्हें बचपन से पाला-पोसा है, जब तुम चल-फिर व बोल भी नहीं सकते थे। मैं तो अभी अपने आप चल-फिर भी लेता हूँ।

चारों पुत्रों ने कहा - पिताजी! घबराइए मत। आप हमारे जन्मदाता हैं। पिता की सेवा करना हमारा कर्तव्य है। हम तो आपस में इसीलिए विचार विनिमय कर रहे हैं कि कौन सी दवा से पिताजी का शरीर स्वस्थ बना रहे।

इतने में ही पांचवा पुत्र उछल पड़ा। वह विवेकहीन बनकर बोला - क्यों इतनी बेकार बातें कर रहे हो? इसको जिंदा रख कर क्या फायदा?

देखते ही देखते सचमुच वह मूर्ख बंदूक लेकर पहुंचा और पिता की ओर तान दी। एक बार तो सब देखते ही रह गए कि यह क्या करने जा रहा है? फिर उसे समझा कर शांत करने का प्रयत्न करने लगे - अरे! पिताजी के नाम ही है, यह मकान और सारे खेत। एक बार उनसे हम अपने नाम करवा लें, फिर तुम जो चाहो कर लेना।

बूढ़े के मन में डर बैठ गया। रात भर वह अपने आगामी जीवन के परिणाम के बारे में सोचता रहा। ऐसे समय में उसे अपनी स्वर्गवासी पत्नी की बहुत याद आई। अगले दिन पुत्रों के काम पर चले जाने के बाद उसने अपने विश्वसनीय मित्र को फोन करके बुलाया और उससे सारा हाल बता कर सलाह मांगी। मित्र ने उसे एक वृद्धाश्रम के बारे में बताया कि वहाँ तुम्हें अपनी उम्र के लोगों के बीच रहने का अवसर मिलेगा और पूर्ण सुरक्षा भी। वह बूढ़ा अपने मित्र की सहायता से अपनी नकद जमापूंजी और जायदाद के कागज़ात लेकर उसी दिन वृद्धाश्रम में चला गया।

सांयकाल बच्चों ने आकर देखा कि पिताजी अपनी चारपाई पर नहीं थे। बड़े बेटे ने अपनी पत्नी से पूछा तो उसने बताया कि पिताजी तो सुबह ही घूमने जाने की कहकर निकले थे और अब तक नहीं आए। बेटों ने देखा कि उनका सामान भी नहीं था और जमीन-जायदाद के कागज़ भी वहाँ नहीं थे।

अब उनके पास हाथ मलने के सिवाय कुछ नहीं बचा था। वे अपने पिता के साथ-साथ उनकी जमापूँजी से भी हाथ धो बैठे थे।

यह है विवेक हीनता की पराकाष्ठा। बुजुर्गों को सम्मान देना सीखो। उनका आशीर्वाद किसी जमापूँजी से कम नहीं है।

सुविचार - मधुर वाणी बोलने से पराये भी अपने बन जाते हैं और कटु वाणी अपनों को भी पराया बना देती है।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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विनम्र निवेदन

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