परोपकारी सन्त के विचार
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परोपकारी सन्त के विचार
Image by Sabrina Wisian from Pixabay
भारत संतों का देश है। यहाँ एक से बढ़कर एक संत हुए हैं। एक ऐसे ही संत हुए जो बड़े ही सदाचारी और लोकसेवी थे। उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य परोपकार था। एक बार उनके आश्रम के निकट से देवताओं की टोली जा रही थी।
संत आसन जमाये साधना में लीन थे। आँखें खोली तो देखा कि सामने देवगण खड़े हैं। संत ने उनका अभिवादन कर उन सबको आसन दिया। उनकी खूब सेवा की।
देवगणों ने उनके इस व्यवहार और उनके परोपकार के कार्य से प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगने को कहा। संत ने आदरपूर्वक कहा - “हे देवगण! मेरी कोई इच्छा नहीं है। आप लोगों की दया से मेरे पास सब कुछ है।”
देवगण बोले - “आपको वरदान तो माँगना ही पड़ेगा, क्योंकि हमारे वचन किसी भी तरह से खाली नहीं जा सकते।”
संत बोले - “हे देवगण! आप तो सब कुछ जानते हैं। आप जो वरदान देंगे, वह मुझे सहर्ष स्वीकार होगा।”
देवगण बोले - “जाओ! तुम दूसरों की और भलाई करो। तुम्हारे हाथों दूसरों का सदा कल्याण हो।”
संत ने कहा - “महाराज! यह तो बहुत कठिन कार्य है?”
देवगण बोले - “कठिन! इसमें क्या कठिन है?”
संत ने कहा - “मैंने आज तक किसी को भी दूसरा समझा ही नहीं है। फिर मैं दूसरों का कल्याण कैसे कर सकूँगा?”
सभी देवगण संत की यह बात सुन एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। उन्हें अब ज्ञात हो गया कि ये एक सच्चा संत हैं। देवों ने अपने वरदान को दोहराते हुए पुनः कहा - “हे संत! अब आपकी छाया जिस पर भी पड़ेगी, उसका कल्याण अवश्य होगा।”
संत ने आदर के साथ कहा - “हे देव! हम पर एक और कृपा करें। मेरी वजह से किस-किस की भलाई हो रही है, इसका पता मुझे न चले। नहीं तो इससे उत्पन्न अहंकार मुझे पतन के मार्ग पर ले जायेगा।”
देवगण संत के इस वचन को सुन अभिभूत हो गए।
परोपकार करने वाले संत के ऐसे ही विचार होते हैं। यदि परोपकार का यह विचार लोगों में आ जाए तो पूरे संसार में कहीं दुःख नहीं होगा, कहीं कोई गरीब नहीं होगा, कहीं अभाव और अशिक्षा नहीं होगी।
किसी ने कहा है कि -
‘मांगो उसी से, जो दे दे खुशी से,
जो दे दे खुशी से और कहे न किसी से।’
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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