प्रतिष्ठित पराक्रम

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प्रतिष्ठित पराक्रम

Image by Ralph from Pixabay

पराक्रम ऐसा होना चाहिए, जो प्रतिष्ठित हो।

रामायण में युद्ध से पहले का किस्सा है। श्री राम ने ये तय कर दिया था कि अंगद को रावण के दरबार में दूत बनाकर भेजा जाएगा।

लंका के दरबार में जाने से पहले अंगद हनुमान जी के पास पहुंचे। अंगद हनुमान जी के भक्त भी थे और उन्हें गुरु भी मानते थे।

अंगद ने हनुमान जी से कहा, “आप तो पहले लंका जा चुके हैं और अब मैं जा रहा हूँ। आप बताइए, मुझे वहाँ जाकर क्या और कैसे करना चाहिए?”

हनुमान जी ने समझाते हुए कहा, “जो भी काम करो, उसकी चर्चा हमेशा होनी चाहिए। पराक्रम ऐसा होना चाहिए, जो प्रतिष्ठित हो।”

अंगद ने हनुमान जी की बातें ध्यान से सुनी और फिर सोचते रहे कि इन बातों का सही अर्थ क्या होगा।

कुछ समय बाद अंगद रावण के सामने खड़े थे। रावण लगातार अंगद का अपमान कर रहा था। रावण ने धर्म की दुहाई देते हुआ कहा, “मैं धर्म जानता हूँ, इसलिए तुमसे कह रहा हूँ, तुम्हारा पिता बाली मेरा मित्र था। तुम अपने कुल की प्रतिष्ठा नष्ट कर रहे हो। जिस राम के साथ तुम हो, उसके पास है क्या? वह डरपोक विभीषण, तुम और सुग्रीव जैसे बंदर, हारा और थका हुआ भाई लक्ष्मण, स्वयं वनवासी राम - तुम क्या मुकाबला करोगे हमारा?

हां, एक बंदर ज़रूर बलवान है, जो पहले आया था, जिसने लंका जलाई थी। वह ज़रूर तुम्हारे पक्ष में बलशाली है।”

ये बात सुनते ही अंगद समझ गए कि हनुमान जी ने कहा था कि जो कोई काम हो, वह इस तरीके से करो कि दुनिया उसे वर्षों तक याद रखे। हनुमान जी लंका जलाकर गए तो रावण आज तक उन्हें याद कर रहा है।

अंगद ने रावण की सभा में अपना पाँव ऐसा जमाया कि कोई भी उसे हिला नहीं सका। आज भी ‘अंगद का पाँव’ एक मुहावरे की तरह प्रयोग में लाया जाता है।

सीख - इस कहानी ने हमें सीख दी है कि हमें हमेशा अच्छा काम करना चाहिए। काम इस ढंग से करें कि लोग हमें और हमारी सफलता को हमेशा याद रखें।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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