राम नाम की महिमा

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राम नाम की महिमा

Image by Hans from Pixabay

एक संत महात्मा श्यामदास जी रात्रि के समय में ‘श्री राम’ नाम का अजपा जाप करते हुए अपनी मस्ती में चले जा रहे थे। जाप करते हुए वे एक गहन जंगल से गुज़़र रहे थे।

विरक्त होने के कारण वे बार-बार देशाटन करते रहते थे। वे किसी एक स्थान में अधिक समय नहीं रहते थे। वे ईश्वर के नाम प्रेमी थे। इसलिये दिन-रात उनके मुख से रामनाम जप चलता रहता था। स्वयं रामनाम का अजपा जाप करते तथा औरों को भी उसी मार्ग पर चलाते।

श्यामदास जी गहन जंगल में मार्ग भूल गये थे, पर अपनी मस्ती में चले जा रहे थे कि जहाँ राम ले चलें, वहीं मैं चलूँगा। दूर अँधेरे के बीच में बहुत सी दीपमालाएँ प्रकाशित थी। महात्मा जी उसी दिशा की ओर चलने लगे।

निकट पहुँचते ही देखा कि वटवृक्ष के पास अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बज रहे हैं, नाच-गाना और शराब की महफ़िल जमी है। कई स्त्री-पुरुष साथ में नाचते-कूदते, हँसते तथा औरों को हँसा रहे हैं। उन्हें महसूस हुआ कि वे मनुष्य नहीं प्रेतात्मा हैं।

श्यामदास जी को देखकर एक प्रेत ने उनका हाथ पकड़कर कहा - ओ मनुष्य! हमारे राजा तुझे बुलाते हैं, चल।

वे मस्तभाव से राजा के पास गये जो सिंहासन पर बैठा था। वहाँ राजा के इर्द-गिर्द कुछ प्रेत खड़े थे।

प्रेतराज ने कहा - तुम इस ओर क्यों आये? हमारी मंडली आज मदमस्त हुई है, इस बात का तुमने विचार क्यों नहीं किया? तुम्हें मौत का डर नहीं है?

अट्टहास करते हुए महात्मा श्यामदास जी बोले - मौत का डर और मुझे? राजन्! जिसे जीने का मोह हो, उसे मौत का डर होता है। हम साधु लोग तो मौत को आनंद का विषय मानते हैं। यह तो देहपरिवर्तन है, जो प्रारब्धकर्म के बिना किसी का हो नहीं सकता।

प्रेतराज - तुम जानते हो हम कौन हैं?

महात्मा जी - मैं अनुमान करता हूँ कि आप प्रेतात्मा हो।

प्रेतराज - तुम जानते हो, मानव समाज हमारे नाम से काँपता है।

महात्मा जी - प्रेतराज! मुझे मनुष्य में गिनने की ग़लती मत करना। हम ज़िन्दा दिखते हुए भी जीने की इच्छा से रहित, मृततुल्य हैं। यदि ज़िन्दा मानो तो भी आप हमें मार नहीं सकते। जीवन-मरण कर्माधीन हैं। मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूँ?

महात्मा की निर्भयता देखकर प्रेतों के राजा को आश्चर्य हुआ कि प्रेत का नाम सुनते ही मर जाने वाले मनुष्यों में से एक इतनी निर्भयता से बात कर रहा है। सचमुच, ऐसे मनुष्य से बात करने में कोई हरकत नहीं।

प्रेतराज बोला - पूछो, क्या प्रश्न है?

महात्मा जी - प्रेतराज! आज यहाँ आनंदोत्सव क्यों मनाया जा रहा है?

प्रेतराज - मेरी इकलौती कन्या, योग्य पति न मिलने के कारण अब तक कुआँरी है। लेकिन अब योग्य जमाई मिलने की संभावना है। कल उसकी शादी है, इसलिए यह उत्सव मनाया जा रहा है।

महात्मा (हँसते हुए) - तुम्हारा जमाई कहाँ है? मैं उसे देखना चाहता हूँ।

प्रेतराज - जीने की इच्छा के मोह के त्याग करने वाले महात्मा! अभी तो वह हमारे पद (प्रेतयोनी) को प्राप्त नहीं हुआ है। वह इस जंगल के किनारे एक गाँव के श्रीमंत (धनवान) का पुत्र है।

महादुराचारी होने के कारण वह इस वक्त भयानक रोग से पीड़ित है। कल संध्या के पहले उसकी मौत होगी। फिर उसकी शादी मेरी कन्या से होगी। इसलिये रात भर गीत-नृत्य और मद्यपान करके हम आनंदोत्सव मनायेंगे।

श्यामदास जी वहाँ से विदा होकर श्री राम नाम का अजपा जाप करते हुए जंगल के किनारे के गाँव में पहुँचे। उस समय सुबह हो चुकी थी।

एक ग्रामीण से महात्मा ने पूछा, “इस गाँव में कोई श्रीमान् का बेटा बीमार है क्या?”

ग्रामीण - हाँ, महाराज! नवलशा सेठ का बेटा सांकलचंद एक वर्ष से रोगग्रस्त है। बहुत उपचार किये, पर उसका रोग ठीक नहीं होता।

महात्मा नवलशा सेठ के घर पहुंचे। सांकलचंद की हालत गंभीर थी। अन्तिम घड़ियाँ थी, फिर भी महात्मा को देखकर माता-पिता को आशा की किरण दिखी। उन्होंने महात्मा का स्वागत किया।

सेठपुत्र के पलंग के निकट आकर महात्मा रामनाम की माला जपने लगे। दोपहर होते-होते लोगों का आना-जाना बढ़ने लगा।

महात्मा - क्यों, सांकलचंद! अब तो ठीक हो?

सांकलचंद ने आँखें खोलते ही अपने सामने एक प्रतापी संत को देखा तो रो पड़ा। बोला, “बाप जी! आप मेरा अंत सुधारने के लिए पधारे हो। मैंने बहुत पाप किये हैं। भगवान के दरबार में क्या मुँह दिखाऊँगा? फिर भी आप जैसे संत के दर्शन हुए हैं, यह मेरे लिए शुभ संकेत है।”

इतना बोलते ही उसकी साँस फूलने लगी, वह खाँसने लगा।

“बेटा! निराश न हो, भगवान राम पतित पावन है। तेरी यह अन्तिम घड़ी है। अब काल से डरने का कोई कारण नहीं। ख़ूब शांति से चित्तवृत्ति के तमाम वेग को रोककर श्री राम नाम के जप में मन को लगा दे। अजपा जाप में लग जा। शास्त्र कहते हैं -

चरितम् रघुनाथस्य शतकोटिम् प्रविस्तरम्।

एकैकम् अक्षरम् पूण्या महापातक नाशनम्।।

अर्थात सौ करोड़ शब्दों में भगवान राम के गुण गाये गये हैं। उसका एक-एक अक्षर ब्रह्महत्या आदि महापापों का नाश करने में समर्थ है।

दिन ढलते ही सांकलचंद की बीमारी बढ़ने लगी। वैद्य-हकीम बुलाये गये। हीरा भस्म आदि क़ीमती औषधियाँ दी गयी, किंतु अंतिम समय आ गया यह जानकर महात्मा जी ने थोड़ा नीचे झुककर उसके कान में रामनाम लेने की याद दिलायी।

राम बोलते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। लोगों ने रोना शुरु कर दिया। श्मशान यात्रा की तैयारियाँ होने लगी। मौक़ा पाकर महात्मा जी वहाँ से चल दिये।

नदी तट पर आकर स्नान करके नामस्मरण करते हुए वहाँ से रवाना हुए। शाम ढल चुकी थी। फिर वे मध्यरात्रि के समय जंगल में उसी वटवृक्ष के पास पहुँचे। प्रेत समाज उपस्थित था।

प्रेतराज सिंहासन पर हताश होकर बैठे थे। आज गीत, नृत्य, हास्य कुछ न था। चारों ओर करुण आक्रंद हो रहा था, सब प्रेत रो रहे थे।

महात्मा ने पूछा, “प्रेतराज! कल तो यहाँ आनंदोत्सव था, आज शोक-समुद्र लहरा रहा है। क्या कुछ अहित हुआ है?”

प्रेतराज - हाँ भाई! इसीलिए रो रहे हैं। हमारा सत्यानाश हो गया। मेरी बेटी की आज शादी होने वाली थी। अब वह कुँआरी रह जायेगी।

महात्मा - प्रेतराज! तुम्हारा जमाई तो आज मर गया है। फिर तुम्हारी बेटी कुँआरी क्यों रही?

प्रेतराज ने चिढ़कर कहा - तेरे पाप से। मैं ही मूर्ख हूँ कि मैंने कल तुझे सब बता दिया। तूने हमारा सत्यानाश कर दिया।

महात्मा ने नम्रभाव से कहा - मैंने आपका अहित किया, यह मुझे समझ में नहीं आता। क्षमा करना, मुझे मेरी भूल बताओगे तो मैं दोबारा नहीं करूँगा।

प्रेतराज ने जलते हृदय से कहा - यहाँ से जाकर तूने मरने वाले को नाम स्मरण का मार्ग बताया और अंत समय भी राम नाम कहलवाया। इससे उसका उद्धार हो गया और मेरी बेटी कुँआरी रह गयी।

महात्मा जी - क्या? सिर्फ़ एक बार नाम जप लेने से वह प्रेतयोनि से छूट गया? आप सच कहते हो?

प्रेतराज - हाँ भाई! जो मनुष्य रामनाम जप करता है, वह रामनाम जप के प्रताप से कभी हमारी योनि को प्राप्त नहीं होता। भगवन्नाम जप में नरकोद्धारिणी शक्ति है।

प्रेत के द्वारा रामनाम का यह प्रताप सुनकर महात्मा जी प्रेमाश्रु बहाते हुए भाव समाधि में लीन हो गये। उनकी आँखें खुली तब वहाँ प्रेत-समाज नहीं था, बाल सूर्य की सुनहरी किरणें वटवृक्ष को शोभायमान कर रही थी।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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