खुश रहना है

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खुश रहना है

Image by Annette Meyer from Pixabay

खुश रहना है तो जितना है उतने में ही संतोष करो।

एक बार की बात है। एक गाँव में एक महान संत रहते थे। वे अपना स्वयं का आश्रम बनाना चाहते थे, जिसके लिए वे कई लोगों से मुलाकात करते थे और इसके लिए उन्हें एक जगह से दूसरी जगह यात्रा के लिए जाना पड़ता था।

इसी यात्रा के दौरान एक दिन उनकी मुलाकात एक साधारण-सी विदुषी कन्या से हुई। विदुषी ने उनका बड़े हर्ष से स्वागत किया और संत से कुछ समय कुटिया में रुक कर विश्राम करने की याचना की।

संत उसके व्यवहार से प्रसन्न हुए और उन्होंने उसका आग्रह स्वीकार किया।

विदुषी ने संत को अपने हाथों से स्वादिष्ट भोजन कराया और उनके विश्राम के लिए खटिया पर एक दरी बिछा दी और वह खुद धरती पर टाट बिछा कर सो गई।

विदुषी को सोते ही नींद आ गई। उसके चेहरे के भाव से पता चल रहा था कि विदुषी चैन की सुखद नींद ले रही है। उधर संत को खटिया पर भी नींद नहीं आ रही थी।

उन्हें मोटे नरम गद्दे की आदत थी जो उन्हें दान में मिला था। वह चैन की नींद नहीं सो सके और विदुषी के बारे में ही सोचते रहे। वे सोच रहे थे कि वह कैसे इस कठोर जमीन पर इतने चैन से सो सकती है।

दूसरे दिन सवेरा होते ही संत ने विदुषी से पूछा कि तुम कैसे इस कठोर जमीन पर इतने चैन से सो रही थी?

तब विदुषी ने बड़ी ही सरलता से उत्तर दिया - हे गुरुदेव! मेरे लिए मेरी ये छोटी-सी कुटिया एक महल के समान ही भव्य है। इसमें मेरे श्रम की महक है। अगर मुझे एक समय भी भोजन मिलता है तो मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूँ।

जब दिन भर के कार्यों के बाद मैं इस धरा पर सोती हूँ तो मुझे माँ की गोद का आत्मीय अहसास होता है। मैं दिन भर के अपने सत्कर्मों का विचार करते हुए चैन की नींद सो जाती हूँ। मुझे अहसास भी नहीं होता कि मैं इस कठोर धरा पर हूँ।

यह सब सुनकर संत जाने लगे।

तब विदुषी ने पूछा - हे गुरुवर! क्या मैं भी आपके साथ आश्रम के लिए धन एकत्र करने चल सकती हूँ?

तब संत ने विनम्रता से उत्तर दिया - बालिका! तुमने जो मुझे आज ज्ञान दिया है, उससे मुझे पता चला कि मन का सच्चा सुख कहाँ है? अब मुझे किसी आश्रम की इच्छा नहीं रह गई।

यह कहकर संत वापस अपने गाँव लौट गये और एकत्र किया हुआ धन उन्होंने गरीबों में बाँट दिया और स्वयं एक कुटिया बनाकर रहने लगे।

जिसके मन में संतोष नहीं है, सब्र नहीं है, वह लाखों-करोड़ों की दौलत होते हुए भी खुश नहीं रह सकता।

बड़े-बड़े महलों, बंगलों में मखमल के गद्दों पर भी उसे चैन की नींद नहीं आ सकती। उसे हमेशा और ज्यादा पाने का मोह लगा रहता है।

इसके विपरीत जो अपने पास जितना है उसी में संतुष्ट है, जिसे और ज्यादा पाने का मोह नहीं है, वह कम संसाधनों में भी ख़ुशी से रह सकता है।

वास्तव में संतोष ही सबसे बड़ा धन है।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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विनम्र निवेदन

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धन्यवाद।

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