दुःख का साथी

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दुःख का साथी

Image by Rainhard Wiesinger from Pixabay

एक शिकारी ने जहर से सना तीर चलाया। निशाना चूका और तीर एक वृक्ष में जा लगा। वृक्ष सूखने लगा। रहने वाले पक्षी एक-एक कर वृक्ष छोड़ गए। केवल एक तोता रुका रहा। फल न मिलने से तोता अधमरा होने लगा। बात देवराज इंद्र तक पहुंची। मरते वृक्ष के लिए अपने प्राण दे रहे तोते को देखने के लिए इंद्र आए।

इंद्र ने तोते को समझाया - भाई! इस पेड़ पर न पत्ते हैं, न फूल, न फल। जंगल में बड़े-बड़े कोटर, पत्ते, फूल, फल से लदे और भी वृक्ष हैं। वहाँ क्यों नहीं चले जाते?

तोते ने जवाब दिया - देवराज! मैं यहीं पर जन्मा, पला-बढ़ा और मीठे फल खाए। इसने मुझे दुश्मनों से बचाया। इसके साथ मैंने सुख भोगे हैं। आज बुरा वक्त आया तो मैं अपने सुख के लिए इसे कैसे त्याग दूं?

इंद्र प्रसन्न हुए और बोले - मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। कोई वर मांग लो।

तोता बोला - मेरे इस पेड़ को हरा-भरा कर दीजिए।

देवराज ने पेड़ को अमृत से सींच दिया। पेड़ पहले की तरह हरा-भरा हो गया। तोता जीवन भर वहाँ रहा और मरने के बाद देवलोक चला गया।

युधिष्ठिर को यह कथा सुना कर भीष्म बोले - अपने आश्रयदाता के दुःख को जो अपना दुःख समझता है, उसके कष्ट मिटाने स्वयं ईश्वर आते हैं। किसी के सुख के साथी बनो या न बनो, दुःख का साथी ज़रूर बनो। यही धर्मनीति है।

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सरिता जैन

सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका

हिसार

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