हृदय परिवर्तन
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हृदय परिवर्तन
Image by Susann Mielke from Pixabay
31 दिसंबर की रात मोहन अपनी पत्नी अपर्णा संग एक मित्र के यहाँ हुई नववर्ष की पार्टी से लौट रहा था। बाहर बहुत ठंड थी। दोनों पति-पत्नी कार से वापिस घर की ओर जा रहे थे। तभी सड़क किनारे पेड़ के नीचे पतली, पुरानी, फटी, चिथड़ी चादर में लिपटे एक बूढ़े भिखारी को देख मोहन का दिल द्रवित हो गया। उसने गाड़ी रोकी।
पत्नी अपर्णा ने मोहन को हैरानी से देखते हुए कहा - क्या हुआ? गाड़ी क्यों रोकी आपने?
‘वह बूढ़ा ठंड से कांप रहा है, अपर्णा। इसलिए गाड़ी रोकी।’
‘तो....?’
मोहन बोला - ‘अरे यार! गाड़ी में जो कंबल पड़ा है न, उसे दे देते हैं।’
‘क्या? वह कंबल....। मोहन जी! इतना मंहगा कंबल आप इस को देंगे। अरे! वह उसे ओढ़ेगा नहीं अपितु उसे बेच देगा। ये ऐसे ही होते हैं।’
मोहन मुस्कुरा कर गाड़ी से उतरा और कंबल डिग्गी से निकालकर उस बुजुर्ग को दे दिया।
अपर्णा ने गुस्से में मुंह बना लिया।
अगले दिन नववर्ष के पहले दिन यानि 1 जनवरी को भी बड़ी गजब की ठंड थी।
आज भी मोहन और अपर्णा एक फंक्शन से लौट रहे थे, तो अपर्णा ने कहा - ‘चलिए, मोहन जी! एक बार देखें, कल रात वाले बूढ़े का क्या हाल है?’
मोहन ने वहीं गाड़ी रोकी और जब देखा तो बूढ़ा भिखारी वहीं था, मगर उसके पास वह कंबल नहीं था। वह अपनी वही पुरानी चादर ओढ़े लेटा था।
अपर्णा ने आँखे बड़ी करते हुए कहा - ‘देखा....। मैंने कहा था कि वह कंबल उसे मत दो। इसने ज़रूर बेच दिया होगा।’
दोनों कार से उतर कर उस बूढे के पास गये।
अपर्णा ने व्यंग्य करते हुए पूछा - ‘क्यों बाबा? रात वाला कंबल कहां है? बेच कर नशे का सामान ले आये क्या?’
बुजुर्ग ने हाथ से इशारा किया, जहाँ थोड़ी दूरी पर एक बूढ़ी औरत लेटी हुई थी, जिसने वही कंबल ओढ़ा हुआ था।
बुजुर्ग बोला - ‘बेटा! वह औरत पैरों से विकलांग है और उसके कपड़े भी कहीं-कहीं से फटे हुए हैं। लोग भीख देते वक्त भी गंदी नजरों से देखते हैं। ऊपर से ये ठंड....। मेरे पास कम से कम ये पुरानी चादर तो है, उसके पास कुछ नहीं था, तो मैंने कंबल उसे दे दिया।’
अपर्णा हतप्रभ सी रह गयी। अब उसकी आँखों में पश्चाताप के आँसू थे। वह धीरे से आकर मोहन से बोली - ‘चलिए। घर से एक कंबल और लाकर बाबा जी को दे भी देते हैं।’
मित्रों! ईश्वर का धन्यवाद कीजिए कि ईश्वर ने आपको देने वालों की श्रेणी में रखा है। अतः जितना हो सके जरूरतमंदों की मदद करें।
चिड़ी चोंच भर ले गई, नदी न घटिये नीर।
दान दिए धन ना घटे, कह गए दास कबीर।।
क्या समझे?
चिंतन करते रहो जी!
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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