ऋण मुक्ति
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ऋण मुक्ति
एक धर्मशाला में पति-पत्नी अपने छोटे-से नन्हे-मुन्ने बच्चे के साथ रुके। धर्मशाला कच्ची थी। दीवारों में दरारें पड़ गयी थी। आसपास में खुला जंगल जैसा माहौल था। पति-पत्नी अपने छोटे-से बच्चे को प्रांगण में बिठाकर कुछ काम से बाहर गये।
वापस आकर देखते हैं, तो बच्चे के सामने एक बड़ा नाग कुण्डली मारकर फण फैलाये बैठा है। यह भयंकर दृश्य देखकर दोनों हक्के-बक्के रह गये। बेटा मिट्टी की मुट्ठी भर-भर कर नाग के फण पर फेंक रहा है और नाग हर बार झुक-झुककर सहे जा रहा है।
माँ चीख उठी, बाप चिल्लाया - “बचाओ....। बचाओ....। हमारे लाड़ले को बचाओ....।”
लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी। उसमें एक निशानेबाज था। वह ऊँट गाड़ी पर बोझा ढोने का धंधा करता था।
वह बोला - “मैं निशाना तो मारूँ और सर्प को ही खत्म करूँगा, लेकिन निशाना चूक जाए और बच्चे को चोट लग जाए तो मैं जिम्मेदार नहीं। आप लोग बोलो तो मैं कोशिश करूँ?”
पुत्र के आगे विषधर बैठा है। ऐसे प्रसंग पर कौन-से माँ-बाप इन्कार करेंगे?
वे सहमत हो गये और माँ बोली - “भाई! साँप को मारने की कोशिश करो, अगर गलती से बच्चे को चोट लग जायेगी, तो हम कुछ नहीं कहेंगे।”
ऊँट वाले ने निशाना मारा। साँप जख्मी होकर गिर पड़ा, मूर्च्छित हो गया। लोगों ने सोचा कि साँप मर गया है। उन्होंने उसको उठाकर कबाड़ में फेंक दिया।
रात हो गयी। वह ऊँट वाला उसी धर्मशाला में अपनी ऊँटगाड़ी पर सो गया।
रात में ठंडी हवा चली। मूर्च्छित साँप सचेतन हो गया और आकर ऊँट वाले के पैर में डसकर चला गया।
सुबह लोग देखते हैं तो ऊँट वाला मरा हुआ था।
दैवयोग से सर्प विद्या जानने वाला एक आदमी वहाँ ठहरा हुआ था।
वह बोला - “साँप को यहाँ बुलवाकर जहर को वापस खिंचवाने की विद्या मैं जानता हूँ। यहाँ कोई आठ-दस साल का निर्दोष बच्चा हो तो उसके चित्त में साँप के सूक्ष्म शरीर को बुला दूँ और वार्तालाप करा दूँ।”
गाँव में से आठ-दस साल का बच्चा लाया गया। उसने उस बच्चे में साँप के जीव को बुलाया।
उससे पूछा गया - “इस ऊँटवाले को तूने काटा है?”
बच्चे में मौजूद जीव ने कहा - “हाँ।”
फिर पूछा - “इस बेचारे ऊँट वाले को क्यों काटा?”
बच्चे के द्वारा वह साँप बोलने लगा, “मैं निर्दोष था। मैंने इसका कुछ नहीं बिगाड़ा था। इसने मुझे निशाना बनाया तो मैं क्यों इससे बदला न लूँ?”
“वह बच्चा तुम पर मिट्टी डाल रहा था, उसको तो तुमने कुछ नहीं किया।”
बालक रूपी साँप ने कहा - “बच्चा तो मेरा तीन जन्म पहले का लेनदार है। तीन जन्म पहले मैं भी मनुष्य था, वह भी मनुष्य था। मैंने उससे तीन सौ रुपये लिए थे, लेकिन वापस नहीं दे पाया। अभी तो देने की क्षमता भी नहीं है। ऐसी भद्दी योनियों में भटकना पड़ रहा है। आज संयोगवश वह सामने आ गया, तो मैं अपना फण झुका-झुकाकर उससे माफी मांग रहा था। उसकी आत्मा जागृत हुई तो धूल की मुट्ठियाँ फेंक-फेंककर वह मुझे फटकार दे रहा था कि ‘लानत है तुझे। कर्जा नहीं चुका सका।’ उसकी वह फटकार सहते-सहते मैं अपना ऋण अदा कर रहा था।
हमारे लेन-देन के बीच टपकने वाला वह ऊँट वाला कौन होता है? मैंने इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा था, फिर भी इसने मुझ पर निशाना मारा। मैंने इसका बदला लिया।”
सर्प-विद्या जानने वाले ने साँप को समझाया, “देखो, तुम हमारा इतना कहना मानो, इसका जहर खींच लो।”
उस सर्प ने कहा - “मैं तुम्हारा कहना मानूँ तो तुम भी मेरा कहना मानो। मेरी तो वैर लेने की योनि है। और कुछ नहीं तो न सही, मुझे यह ऊँटवाला पाँच सौ रुपये दे, तो अभी इसका जहर खींच लूँ। उस बच्चे से तीन जन्म पूर्व मैंने तीन सौ रुपये लिये थे, दो जन्म और बीत गये, उसके सूद के दौ सौ मिलाकर कुल पाँच सौ लौटाने हैं।”
किसी सज्जन ने पाँच सौ रूपये उस बच्चे के माँ-बाप को दे दिये। साँप का जीव वापस अपनी देह में गया, वहाँ से सरकता हुआ मरे हुए ऊँट वाले के पास आया और जहर वापस खींच लिया। ऊँट वाला जिंदा हो गया।
इस कथा से स्पष्ट होता है कि इतना व्यर्थ खर्च नहीं करना चाहिए कि सिर पर कर्जा चढ़ाकर मरना पड़े और उसे चुकाने के लिए सर्प की योनि में जाना पड़े और फण झुकाना पड़े, मिट्टी से फटकार सहनी पड़े।
जब तक आत्मसम्मान नहीं होता, तब तक कर्मों का ऋणानुबंध चुकाना ही पड़ता है। अतः निष्काम कर्म करके ईश्वर को संतुष्ट करें। अपने आत्मा-परमात्मा का अनुभव करके यहीं पर, इसी जन्म में शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करें।
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सरिता जैन
सेवानिवृत्त हिन्दी प्राध्यापिका
हिसार
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धन्यवाद।
Ok shandar lekhapurva janmae ka hesab to hota hi he
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